एक पंडित जी अपने लड़के को पढ़ा रहे थे..
‘मातृवत् परदारेषु’
“पर स्त्री को अपनी माँ के बराबर समझें।”
लड़का मूर्ख था कहने लगा- “तो क्या पिता जी, आप मेरी स्त्री को माता के तुल्य समझते हैं?”
पिता रुष्ट हो बोला- “मूर्ख आगे सुन..”
‘परद्रव्येषु लोष्ठवत्’
“पराए धन को मिट्टी के ढेले के सदृश समझें।”
लड़का झट बोल उठा- “चलो कचालूवाले का पैसा ही बचा।”
पंडित जी ने कहा- “श्लोक का अर्थ यह नहीं है, पहले सुन तो ले।”
लड़के ने कहा- “यहाँ तक तो मतलब की बात थी, अच्छा आगे चलिए।”
पंडितजी ने फिर कहा,
‘आत्मवत सर्वभूतेषु य: पश्यति सपंडित:’
“अपने सदृश्य जो औरों को देखता है, वही पंडित है।”
लड़का कुछ देर सोच के बोला- “पिता जी तब आप कलुआ मेहतर के लड़के के साथ खेलने को हमें क्यों रोकते हैं।”
इस पर पंडितजी ने उसे हजार समझाया पर वह अपनी ही बात बकता गया।