असीरिया के बादशाह नाइनस का दिल अपने ही जनरल ओनस की बीवी सेमिरामिस पर आ गया। वह उसे पा लेना चाहता था, इसलिए उसने ओनस को एक ऐसे युद्ध पर भेजना चाहा जहाँ उसका मरना तय था। ओनस को जब यह सब पता चला तो उसने आत्महत्या कर ली। नाइनस ने सेमिरामिस से ब्याह कर लिया और उसी समय एक शहर नेनवह की बुनियाद रखी जिसका उल्लेख बाद में बहुत-सी मज़हबी किताबों में आया।
वर्षों बाद सेमिरामिस को जब कहीं से बादशाह के षड्यन्त्र का पता चला तो उसने नाइनस को मरवा दिया और उसका आलीशान मक़बरा बेबिलोनिया में बनवाया। इस मक़बरे से लगा एक बाग़ भी लगवाया गया जिसमें पूरी दुनिया के अजीबोग़रीब फल-फूल लगाए गए। इनमें शहतूत के वे वृक्ष भी थे जिसके नीचे तीन सौ साल बाद, पाईरामुस और थिस्बे चोरी छुपे आकर मिला करते थे और एक-दूसरे के प्रति अपनी प्रेम-भावना व्यक्त करते थे। हालाँकि उनके घरों के बीच बस एक दीवार थी जिसकी एक दरार से वे सबकी नज़र बचाकर कभी-कभी रो लिया करते थे। उनके परिवारों की आपसी दुश्मनी इनके प्यार में अड़चन बन गयी थी।
पाईरामुस और थिस्बे के लिए एक-दूसरे के बिना जी पाना मुश्किल हुआ जाता था। मृत्यु की देवी से तमाम मिन्नतें करने पर भी उन्हें मौत नहीं आती थी। एक दिन जब पाईरामुस से दुःख और बर्दाश्त न हुआ तो उसने नाइनस के मक़बरे वाले बाग़ में उसी शहतूत के वृक्ष के नीचे अपनी तलवार पर गिरकर आत्महत्या कर ली जिसके नीचे वह थिस्बे से मिला करता था। उस समय आत्महत्या का यही तरीक़ा प्रचलित था। कुछ ही समय पश्चात जब थिस्बे वहाँ पहुँची और पाईरामुस को मरा हुआ पाया तो उसने भी उसी तलवार से अपनी जान ले ली।
कहते हैं कि इनके मिश्रित ख़ून की कुछ बूँदें शहतूत के पत्तों और फलों पर पड़ गयीं और देवताओं ने इनके प्रेम के सम्मान में शहतूत के फलों का रंग वह कर दिया जो आज है।
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हमारे पुराने वाले घर के एक तरफ़ दो हाथ ज़मीन ख़ाली पड़ी थी। मेरे लिए घर का यह हिस्सा समय गुज़ारने का सबसे बेहतरीन साधन था। ख़ासकर तब जब मैं अकेला होता था। गर्मी की दोपहर जब पूरा मोहल्ला सुनसान होता था, घर के लोग लू से बचने के लिए दरवाज़े खिड़कियाँ बन्द कर लेते थे, मैं चुपके-से इधर निकल आता। यहाँ मेरे सबसे बेहतरीन दोस्त मेरा इंतज़ार करते थे। ये दोस्त वे पेड़ पौधे थे जिन्हें मैंने ख़ुद उगाया था।
इस दो हाथ ज़मीन में मैंने सबसे पहले अमरूद का एक पेड़ उगाया। यह अमरूद का पेड़ हमारे घर में तब तक रहा जब तक वह घर हमारा रहा। यह एक लम्बूतरा-सा वृक्ष था जो सीधा छत के ऊपर जाकर फैला। इसमें फल ज़रूर आते थे लेकिन पकने नहीं पाते थे।
वहाँ मैंने पपीता भी उगाया जिसका फल बहुत मीठा था। किसी तरह एक बार केले का एक पेड़ भी उगाया जिसकी कुछ समय बाद मौहल्ले की हिन्दू औरतें पूजा करने लगीं। हमारे घर में इसे अपशकुन समझा गया, और एक सुबह मुझे वह पेड़ वहाँ से ग़ायब मिला।
बारिश के मौसम में पके आमों की गुठली से कई पेड़ निकल आते थे। मुझे उन पौधों को चुनकर निकालना पड़ता था। मुझे आम के पेड़ों से हमेशा यह डर रहा कि अगर ये जम गए तो इनकी जड़ें मेरे घर की दीवारें तोड़ देंगी। उन पौधों की जड़ में लगी आम की गुठली घिसकर पिपिहरी बनाने के काम आती, जिसे मैं बहनों के कान पर जाकर बजाता और उन्हें परेशान करता।
उस छोटी-सी ख़ाली पड़ी ज़मीन पर मैंने खेती भी की। धनिया, प्याज़, टमाटर, मिर्च और चने का साग लगाया। बैंगन की सब्ज़ी मुझसे कभी खायी न गई लेकिन पौधे में लगा बैंगन घण्टों देखते रहना बहुत अच्छा लगता था। एक समय लौकी की बेल बढ़कर छत पर फैल गई। गोल-गोल लौकियाँ मैंने पूरे मोहल्ले में बाँटीं।
एक बार ज़माने से ख़ाली पड़े उस मकान से, जिसे हम भुतहा समझते थे और रात में उसके पास से गुज़रने से डरते थे, शहतूत की एक डाल तोड़ लाया और बारिश से भीगी ज़मीन में यूँ ही धँसा दी। कुछ दिनों में इसमें नये पत्ते निकल आए। फिर वह फैलने लगा और धीरे-धीरे इतना फैला कि बाक़ी पौधों को ढक लिया।
मुझे इसमें रेशम के कीड़े की तलाश रहती। मैंने सोच लिया था कि रेशम का कारोबार करूँगा और अमीर आदमी बन जाऊँगा, तब मैं किसी सुन्दर लड़की से विवाह करूँगा। लेकिन वह कीड़ा मेरे शहतूत पर कभी ना आया और एक दिन बोर होकर मैंने उसे उखाड़ फेंका। उसके बाद ही मेरा मन उधर से उचाट होने लगा। कुछ दिनों बाद मुझे पढ़ाई के लिए बाहर भेज दिया गया। दो बरस बाद जब शहर का माहौल बिगड़ा तो वह घर बेच दिया गया और हम एक मुस्लिम इलाक़े में बस गए।
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मैंने बड़े मामू को नहीं देखा। न उन्होंने मुझे। मेरे जन्म से काफ़ी पहले वो गुज़र चुके थे। मुझे बस मामी की कुछ झलकियाँ याद हैं। वो भारी जिस्म की औरत थीं और धोती पहनती थीं। उनके बाल सफ़ेद हो चले थे और पान से उनके दाँत काले पड़ गए थे। मुझे उनके घर जाना अच्छा नहीं लगता था क्यूँकि उनके यहाँ खेलने के लिए बच्चे नहीं थे। उनकी सारी औलादें उम्र में मुझसे काफ़ी बड़ी थीं और ख़ुद मामी का मिज़ाज गर्म था। बेटों से अपनी बहुओं को पिटवाने के लिए वे प्रसिद्ध थीं।
जब तक मामी रहीं, उनके घर में कोई ख़ास तब्दीली नहीं आयी। तीन तरफ़ कमरे और बीच में बड़ा-सा आँगन। एक तरफ़ नहावन और खुड्डी। आँगन के बीच एक बड़ा-सा ख़ूबसूरत शहतूत का वृक्ष। यह किसी झाड़ी जैसा बिल्कुल नहीं था। एक मोटा तना आदमी की ऊँचाई तक सीधा चला गया था जिसके ऊपर पूरा पेड़ किसी गहरे हरे छाते की तरह गोलाई में फैल गया था। इसके फल लम्बे और काले होते, जिन्हें देखकर मुझे कनखजूरे की याद आती। फलों के दिनों में पेड़ के नीचे की ज़मीन गिरते फलों के रस से काली पड़ जाती और तोड़ने पर हाथों पर मानो ख़ून लग जाता। मैंने मामी को हमेशा इसी पेड़ के नीचे खटिया पर बैठे, पानदान पर एक घुठना टिकाए, बीड़ी बनाते देखा।
मामी के घर मेरा ज़्यादा समय इसी शहतूत के पेड़ पर कटता। मैं उसमें घण्टों छिपा बैठा रहता। एक बार मुझे बताया गया कि यह पेड़ मामू कहीं सफ़र से वापसी पर अपने साथ ले आए थे और अपने हाथों से यहाँ लगाया था। इसी पेड़ पर बैठे-बैठे मैं अम्मी और मामी को बातें करते देखा करता। वे अक्सर रोने लगतीं। मैंने उन्हें हँसते हुए भी देखा। कभी-कभी वे इतनी हल्की आवाज़ में बात करतीं कि मालूम होता बस होंठ हिल रहे हों। उनकी ज़्यादातर बातें मेरी समझ में नहीं आती थीं। उनके घर से जाते समय जब मैं ख़ूब ख़ुश होता, अम्मी और वे फूट-फूटकर रोतीं और देर तक गले लगतीं। इससे दोनों की पीठ पीछे एक-दूसरे की बुराई करना और शिकायतें करना कम नहीं होता था।
मामी कब चल बसीं, मुझे ठीक से याद नहीं। मुझे बताया भी नहीं गया। जब से मुझे बाहर भेजा गया, मैं कभी उनके यहाँ न जा सका। उनके बेटों से मेरी बातचीत नहीं है। ख़ुद उन बेटों की औलादें मेरी उम्र की हैं। एक बार छुट्टियों में जब अम्मी ने मुझे किसी ज़रूरी काम से मामी के घर भेजा तो मुझे उनका घर तलाशने में काफ़ी दिक्कत हुई। उनके यहाँ लोगों ने भी मुझे नहीं पहचाना और मुझे अपने बारे में बताना पड़ा। उनका घर अब बिल्कुल बदल गया था। पहले का बड़ा-सा मकान अब छोटे-छोटे पक्के घरों में बँट गया था। आँगन कहीं ग़ायब हो गया था और शहतूत के पेड़ का कोई निशान बाक़ी नहीं था। जितनी जल्दी हो सका, मैं वहाँ से चला आया।
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दिल्ली में उनसे मेरी आख़िरी मुलाक़ात उसी पार्क में हुई जिसमें हम अक्सर बैठा करते थे। पतझड़ का मौसम था, पार्क के अधिकतर पेड़ अपनी पत्तियाँ छोड़ चुके थे। बाक़ी पेड़ों और पौधों पर दिल्ली की गर्द जमा थी। हम उस बेंच के अलग-अलग सिरों पर बैठे थे जिसके पीछे शहतूत का पेड़ था। शहतूत की पत्तियाँ सूखने पर दूसरे पेड़ों की पत्तियों से हल्की होती हैं। पेड़ छोड़ने से पहले ही पत्तियों की अंदरूनी बनावट जूट की बुनाई की तरह नुमायाँ हो जाती है।
“मेरी हूरों से मेरा सलाम कहना।” मैंने कहा।
उन्होंने अपनी सूजी हुई आँखों से मुझे बनावटी ग़ुस्से से घूरा, “सोचना भी मत। उनसे तो मैं झाड़ू बर्तन करवाऊँगी।” उन्होंने कहा और हँस दीं। उनकी पलकें फिर से भीग गईं। उनके सुनहरे गालों पर मास्क के निशान दूर से ही दिखने लगे थे।
शहतूत की एक पत्ती टूटी और उनके बालों में उलझ गई। मैंने हाथ बढ़ाया, फिर पीछे कर लिया। उन्होंने अपना सिर मेरी तरफ़ कर दिया। मैंने वो पत्ती उनके बालों से छुड़ायी और अपनी शर्ट की जेब में रख ली। उन्होंने आश्चर्य से मुझे देखा।
हल्की-सी मुस्कुराहट उनके होंठ के ऊपरी कोने पर उभरी और ग़ायब हो गई।
कुछ देर बाद उन्होंने कहा, “आपको पता है?”
उन्होंने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया और मैंने वह पत्ती जेब से निकालकर उनकी हथेली पर रख दी।
“हमारे यहाँ के शहतूत बहुत अच्छे होते हैं।” उन्होंने वह पत्ती मुट्ठी में बन्द की और मसल दी।
“लम्बे-लम्बे कनखजूरे जैसे, और बहुत मीठे।” उन्होंने हथेली पर पड़ी पत्ती की भुरभुरी फूँककर उड़ा दी। “ख़ासकर क़ब्रिस्तान वाले शहतूत। उनमें ख़ून भरा होता है। तोड़ो तो हाथों में लग जाता है।” उन्होंने कहा और फिर चुप हो गईं।
रात की गाड़ी से वे अपने घर चली गईं, जहाँ उन्हें अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया। कुछ ही दिन में उनकी ख़बर आ गई। मैं उनकी मिट्टी में नहीं गया। न उसके बाद उनके घर जाकर पुरसा दे सका।
कभी-कभी उस पार्क में जाता हूँ। आजकल शहतूत पर नयी पत्तियाँ हैं और वह दिन-भर हवा में झूमता रहता है। बस एक दिल्ली की गर्द दिन-भर उड़ती रहती है और सब कुछ दफ़न कर देना चाहती है।