मैं
पंख फैलाए
बांधे पंखों में हवा
उन्मत्त मदमस्त उन्मुक्त
गगन में उड़ती थी…
रास नहीं आया उन्हें मेरा उड़ना
वे
पंजे पजाकर
चोंत तेज़ कर
धारदार पैनी नज़रों से
मेरे
पंख काटने को उद्यत
बढ़े आ रहे मेरी ओर बाज़-गति से
घेरते गगन
गिद्धों-से
वे मुझे डराना चाहते
मैं
तैर रही थी पंखों के सहारे
हवा में
उड़ रही थी क्षितिज-रेख पर
गगन के किनारे-किनारे
डरी-डरी-सी उतरी
धरा पर
आश्रय खोजती
आ बैठी सूखे तरु पर
चुपचाप खोयी-खोयी दुबकी-सी
गुमसुम ताक रही आकाश…
जहाँ अब चाक़ू तैर रहे हैं
कैसे उड़ूँ मैं
वहाँ बाज़ ताक रहे हैं?
कैसे चहकूँ मैं
वहाँ गिद्ध तलाश रहे हैं?
क्या भूल जाऊँ मैं उड़ना
चहकना चाहना फुदकना
उन्मुक्त मदमस्त हो गाना?
यही तो वे चाहते
वे उड़ें निर्बाध
मैं दुबकी रहूँ कोटर में
वे घेर लें आकाश
मैं धरती से सटी-सटी पड़ी रहूँ बेआस
वे मदमस्त हवा में तैरें—
उन्मुक्त
मैं पंख बचाने की फ़िक्र में
जीने की फ़िराक़ में
नज़रों से बचती फिरूँ
छिपती फिरूँ
नहीं… होगा नहीं यह
नहीं होंगे कामयाब वे
तेज़ चोंचों के वार से
टुंग कर
नुकीले पंजों की पकड़ से
गुद कर
पैनी नज़रों की धार से
कट कर
चिर कर
उन्हें भोथरा करने के लिए
ज़रूरी ही है खोलना पंख
तो खोलूँगी मैं
विकल्प उड़ना ही है तो उड़ूँगी मैं
मेरे होने के इज़हार के लिए
विकल्प
वजूद का मिटना ही है
तो मिटूँगी मैं
पर चाक़ुओं को हवा में तैरने से
रोकूँगी मैं! रोकूँगी मैं! रोकूँगी मैं!
रमणिका गुप्ता की कविता 'मैं आज़ाद हुई हूँ'