‘Pitrasatta Ki Bediyon Mein Jakdi Striyaan’, a poem by Anupama Vindhyavasini
पितृसत्ता की बेड़ियों में
जकड़ी स्त्रियाँ
रोज़ सुबह बुहार देती हैं
अपनी समस्त इच्छाएँ
और फेंक देती हैं
स्वप्नों की धूल
घर और मन से बाहर…
नाश्ते की ख़ाली प्लेटों में देखती हैं
अपनी ज़िन्दगी का ख़ालीपन और
उसे भर देती हैं
गरम पराँठों से…
दोपहर की सब्ज़ी बनाते हुए
बना लेती हैं कुछ नए ख़्याल
जो शाम की चाय के
पानी के साथ उबलकर
फिर से आसमान में घुल जाते हैं…
पितृसत्ता की बेड़ियों में
जकड़ी स्त्रियाँ
रात की रोटियाँ सेंकते वक़्त
दिन भर की सुनी हुई
जली-कटी बातों को
बना लेती हैं
अपनी उंगलियों की
पोरों का कवच…
पितृसत्ता की बेड़ियों में जकड़ी
स्त्रियों के हाथ
आसान बनाते हैं
दूसरों की ज़िन्दगी
और बदले में वे
ठहरायी जाती हैं ज़िम्मेदार
घर के कोनों में बुने गए
मकड़ी के जालों के लिए…
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