पत्र कई आए
पर जिसको आना था
वह नहीं आया,
व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
सहन में फिर उतरा पीला-सा हाशिया
साधों पर पाँव धरे चला गया डाकिया
और रोज़-जैसा
मटमैला दिन गुज़रा
गीत नहीं गाया,
व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
भरे इंतज़ारों से एक और गठरी
रह-रहकर ऊँघ रही है पटेल नगरी
अधलिखी मुखरता
कह ही तो गई—वाह
ख़ूब गुनगुनाया,
व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
खिड़की मैं बैठा जो गीत है पुराना
देख रहा पत्रों का उड़ रहा ख़ज़ाना
पूछ रहा मुझसे
पतझर के पत्तों में
कौन है पराया,
व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
अज्ञेय की कविता 'उधार'