खुद को एक दूसरे के ऊपर
प्रतिस्थापित करने के उद्योग में
उन्मादी भीड़-समूह ने
फेंके एक-दूसरे के ऊपर अनगिनत पत्थर
जमकर बरसाई गईं गोलियां
पार की गईं हैवानियत की सारी हदें
स्थापित किया गया
बर्बरता और नृशंसता का
नया कीर्तिमान

रक्त के अंतिम कतरे तक
एक दूसरे ने बुझाई अपनी प्यास
और सबसे आखिरी में
जला डालीं एक-दूसरे की बस्तियाँ
उस आग में जल गया सब कुछ
झोपड़ी-मकान, निरीह-जानवर, खेत-अनाज
हरा-भगवा, जनेऊ-टोपी, सबकुछ
अब वहाँ बची थी
सिर्फ राख

फिर भी पता नहीं कैसे,
दोनों बस्तियों के बीचोंबीच
बच गया था, एक दुधमुंहा बच्चा
पूरी तरह लिपटा हुआ राख से
उसे खुदा की नेमत ने बचाया था
या तैतींस करोड़ देवी-देवताओं ने
यह अंदाजा लगाना था बहुत मुश्किल

क्योंकि
उसके शरीर पर
लिपटी हुई थी
एकदम काली और स्याह राख
रंग चाहे जो भी रहा हो पहले,
जलने के बाद
बचता है तो सिर्फ़ राख
बिल्कुल स्याह और काला
और इसके अलावा वहाँ
कुछ भी निशान नहीं बचे थे।

दीपक सिंह चौहान 'उन्मुक्त'
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसम्प्रेषण में स्नातकोत्तर के बाद मीडिया के क्षेत्र में कार्यरत. हिंदी साहित्य में बचपन से ही रूचि रही परंतु लिखना बीएचयू में आने के बाद से ही शुरू किया ।