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बगुले उड़े जा रहे थे
नीचे चल रहे थे हम तीन जन
तीन जन शहर से आए हुए
क्वार की तँबियाई धूप में
नहाए हुए तीन जन
चले जा रहे थे फैले कछार में
डूबते हुए दिन की पगडण्डी पकड़कर
तीन जन ख़ुश
एक अजब विश्वास से भरे हुए तीन जन
कि हम जा रहे हैं ठीक
कि ज़रूर-ज़रूर
हम पहुँच ही जाएँगे
बगुलों की तरह अपने ठीक मुक़ाम पर
दिन डूबने से पहले

हम चले जा रहे थे चुप
किन्हीं बातों में खोए हुए
चले जा रहे थे हम
कि अचानक हमारे पाँव ज़रा ठिठके
कि अचानक हमने पाया-
रास्ता ख़त्म!

अब हमारे सामने
पके हुए ज्वार के
दूर तक फैले सिर्फ़ खेत ही खेत थे
और रास्ता नहीं था

क्या हुआ
किधर गया रास्ता
हम तीन जन सोचते रहे
खड़े
परेशान
कि हमें दूर दिखायी पड़ा
डूबते हुए सूरज के आसपास
एक बूढ़ा किसान
हम उसके पास गए
पूछा- ‘दादा, रास्ता किधर है?’

बूढ़ा कुछ नहीं बोला
वह देर तक हमें यों ही देखता रहा
कि फिर उसने नीचे से
एक ढेला उठाया
और उस तरफ़ फेंका
जिधर झुकी हुई चर रही थी
एक काली-सी गाय

अब गाय चलने लगी
पत्ते बजने लगे
और हमने देखा
कि जिधर ज्वार की लटकी हुई थैलियों को चीरती
चली जा रही थी गाय
उधर रास्ता था
उधर घास में
धँसे हुए खुर की तरह
चमक रहा था रास्ता

अब दृश्य बिलकुल साफ़ था
अब हमारे सामने
गाय थी
किसान था
रास्ता था
सिर्फ़ हमीं भूल गए थे
जाना किधर है!

बगुले
हमसे दूर
बहुत दूर निकल गए थे।

केदारनाथ सिंह
केदारनाथ सिंह (७ जुलाई १९३४ – १९ मार्च २०१८), हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि व साहित्यकार थे। वे अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरा सप्तक के कवि रहे। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उन्हें वर्ष २०१३ का ४९वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। वे यह पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के १०वें लेखक थे।