सचमुच बहुत देर तक सोए!

इधर यहाँ से उधर वहाँ तक
धूप चढ़ गई कहाँ-कहाँ तक
लोगों ने सींची फुलवारी
तुमने अब तक बीज न बोए!

सचमुच बहुत देर तक सोए!

दुनिया जगा-जगाकर हारी,
ऐसी कैसी नींद तुम्हारी?
लोगों की भर चुकी उड़ानें
तुमने सब संकल्प डुबोए!

सचमुच बहुत देर तक सोए!

जिनको कल की फ़िक्र नहीं है
उनका आगे ज़िक्र नहीं है,
लोगों के इतिहास बन गए
तुमने सब सम्बोधन खोए!

सचमुच बहुत देर तक सोए!

मुकुट बिहारी सरोज की कविता 'गणित का गीत'

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