‘Samvad Ka Pul’, a poem by Nirmal Gupt
मैं लिखा करता था
अपने पिता को ख़त
जब मैं होता था
उद्विग्न, व्यथित या फिर
बहुत उदास,
जब मुझे दिखायी देती थीं
अपनी राह में बिछी
नागफनी ही नागफनी
यहाँ से वहाँ तक।
मेरा बेटा मुझे कभी ख़त नहीं लिखता
फ़ोन ही करता है केवल
उसकी आवाज़
महानगर के कंक्रीट के जंगल से
निकलकर
गाँव-कस्बों, खेत-खलिहानों,
बाज़ारों को लाँघती
धवनि तरंगों में ढलकर
पहुँचती है जब मेरे कानों तक
तब उसमें नहीं होती
कैशोर्य की कोई उमंग,
उसमें से झरती है
निराशा की राख ही राख।
इसी राख में ज़रूर होंगे
आस के अंगारे भी,
मेरे कान महसूस करना चाहते हैं
उस तपिश को
पर अक्सर रहते हैं
नाकामयाब ही।
मेरे पिता मेरे लिखे ख़त का
तुरन्त भेजते थे जवाब
उसमें होती थीं ढेर सारी आशीषें,
शुभकामनाएँ,
अस्फुट सूचनाएँ,
बदलते मौसम का विवरण
और उससे ख़ुद को
बचाय रखने की कुछ ताकीदें।
मैं पिता का ख़त पढ़ता
और मुतमईन हो जाता
कुछ पल के लिए
यह सोचकर कि
यदि कभी आपदा के मेघ बरसे
तो मेरे पिता उपस्थित हो जाएँगे
छाता लेकर,
बचपन से मैंने जाना
जब कभी मेघ बरसे
मेरे पिता आ गए
छाता लेकर
उन्होंने मुझे कभी भीगने
नहीं दिया।
पिता के लिखे सारे ख़त
मैंने रखे हैं आज भी
बहुत सहेजकर अपने पास।
मुझे पता है
ये ख़त जादुई हैं
ज़रूरत पड़ने पर
कभी ढाल, कभी तलवार
तो कभी छाता बन सकते हैं।
लेकिन मैं अपने
हताश, निराश, बैचैन
महानगरीय अन्तरिक्ष में
भविष्यहीनता को झेलते
एकाकी संघर्षरत बेटे को
फ़ोन के ज़रिये
अपने स्नेह का स्पर्श,
ध्वनि-तरगों में लिपटा
पिता सरीखा विश्वस्त आश्वासन
आपदा से बचाने वाला छाता
देना भी चाहूँ तो कैसे दूँ?
काग़ज़ पर अंकित शब्द
बन जाते हैं इतिहास,
उनमें प्रवाहित होता है
उर्जा का अजस्र स्रोत
लेकिन ध्वनित तरंगें
तो खो जाती हैं पलक झपकते
और रह जाता है
पिता-पुत्र के बीच सम्वादों का
एक कमज़ोर पुल,
जिसका दरकना तय है
मौसम की पहली बारिश में।
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