मेरी उदासी में, तुम ऊष्मा थी

ठिठुरती ज़िन्दगी की उम्मीद

जिस पर मैं अपना मन सेंकता था…
तुम्हारी मौजूदगी मेरे बहुत अकेलेपन को
किसी जादू की तरह,
कम अकेलेपन में बदल दिया करती थी

मैंने जब भी कहा, मुझे डर लगता है
तुमने दी अपने हृदय की ओट
छिपने को,
तुमने सुनाए मुझे प्रेम के गीत,
सिखायी तुमने प्रेम की भाषा,
तुमने थमायी अपनी अँगुली और बचा लिया खोने से…
तुम रही मेरी ज़िन्दगी में हवा की तरह
मेरे अंदर हर उभरी रिक्तता को भरते हुए…
और जब तुमने कहा – ‘रुको’
मैं नहीं सुन सका तुम्हारी आवाज़

अपने ही शोर में मैं बढ़ गया आगे

बिना जाने कि तुम रुककर देख रही हो वर्तमान के स्वप्न
आगे जाने पर मैंने अपना हाथ ख़ाली पाया
अब मैं तुम्हारी उस आवाज़ को सुनने के लिए
एकांत में रहना चाहता हूँ
मैं दीवार, दरख़्तों में कान लगाकर सुनना चाहता हूँ तुम्हारी पुकार
जिसे उन्होंने मेरे न सुनने पर सोख लिया होगा…

मुझे शोर से चिढ़ होने लगी है…
मैं वापस लौटता हूँ बार-बार
स्मृति की पगडण्डी पर उल्टे पाँव
शायद तुम मिलो कहीं और माँग सकूँ माफ़ी तुमसे
मैं चाहूँगा, रोऊँ तुम्हारे सामने फूटकर
और तुम ग़ुस्से में गले भी न लगाना…
मैंने छीना है तुमसे तुम्हारा प्रेम
तुम्हारी सुखद स्मृतियों का हत्यारा हूँ मैं
मेरी दोस्त, चुप मत रहो
मुझे सज़ा दो…

गौरव गुप्ता
हिन्दी युवा कवि. सम्पर्क- gaurow.du@gmail.com