स्वप्न में पिता घोंसले के बाहर खड़े हैं
मैं उड़ नहीं सकती
माँ उड़ चुकी है
कहाँ
कुछ पता नहीं
मेरे आगे किताब-क़लम रख गया है कोई
और कह गया है कि
सूरज ढलने तक लिख दूँ एक कविता
या लिख दूँ माँ का पता
स्वप्न-भर तक माँ खोई रहती है
जाग में वह तोड़ती रहती है लोईयाँ
स्वप्न-भर तक पिता घोंसले के बाहर खड़े रहते हैं
जाग में वह सीढ़ियों से उतरकर जाते रहते हैं
स्वप्न-भर तक मैं घोंसले में रहती हूँ
जाग में घोंसला मुझमें रहता है
स्वप्न-भर तक बित्ते-भर से भी कम की मैं
जाग में पहाड़ लगने लगती हूँ—
वह पहाड़ जो जंगलों से घिरा हुआ है
अपने भीतर बचाये हुए एक नन्हा घोंसला
पिता बाहर खड़े हैं
कभी सीढ़ियों से उतर रहे हैं
माँ उड़ चुकी है
कभी लोईयाँ तोड़ रही है…