‘Tark Wali Aankhein’, a poem by Usha Dashora
जब गाँव की लड़कियाँ
स्कूल जाती हैं
तब रूढ़ियों के सर पर
उग आती हैं
तर्क वाली आँखें
झाड़-फूँक पढ़ने लगते हैं
विज्ञान के आविष्कार
पारे वाले
थर्मामीटर का तापमान
फिर अचानक
आखा तीज के बालविवाह
मुड़ने लगते हैं
काख में किताबें थामें
डिग्री कॉलेज की ओर
टूटने लगते हैं
मासिक धर्म के मिथक
बेडमिंटन कोर्ट में
और एन. सी. सी. परेड में
उन गंदे स्पर्शों को चिथेड़ती है
उसकी देह
जो कर्ज़ और सूद की चौपड़ पर
उसे निर्वसन करते हैं द्रोपदी की तरह
तब रात की बासी रोटियाँ
गायों के थन, गोबर वाले हाथ
प्रोटीन, विटामिन
और मिनरल्स पर
वाद-विवाद करते हैं
राख से बर्तन माँजती
छोटी कटी अँगुलियाँ लिखती हैं
छुपकर कविता
और रटती हैं
इतिहास की क्रांतियाँ
तब आन्दोलन, हड़ताल
बाहर दौड़ते हैं
स्कूल के फाटक से
उन खाँचों के ख़िलाफ़
जो नाप-नूप कर देते हैं
लड़कियों को आकाश!
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