बहुत अच्छे लेखकों के बारे में यह एक आम धारणा है कि उन्हें उनकी मूल भाषा में ही पढ़ा जाना चाहिए। रस्किन बॉन्ड, जिन्होंने मूलतः अंग्रेजी में लिखा है, उनके बारे में भी यही कहा जाता है और अभी तक हर कोई उन्हें अंग्रेजी में ही पढ़ता भी आया है चाहे वह पाठक अन्यथा किसी दूसरी भाषा का पाठक हो। मैं इससे सहमत भी हूँ क्योंकि अनुवाद करते समय, एक भाषा से दूसरी भाषा में जाते समय, चाहे कितना भी प्रयत्न किया जाए, मूल भाषा के सारे रंग, सारी बनावट सिमट नहीं पाती। कहीं न कहीं, कुछ न कुछ छूट जाता है, जिसका पता भी केवल तभी लग पाता है जब आप अनुवाद के बाद मूल रचना भी पढ़ें। यह बेवजह नहीं है कि रविंद्रनाथ टैगोर को पढ़ने के लिए लोग बांग्ला सीखते हैं तो ग़ालिब को पढ़ने के लिए उर्दू। सीखनी भी चाहिए अगर आपको उन लेखकों/कवियों की रचनाओं को उनके विशुद्ध, ख़ालिस रूप में ग्रहण करना है। उनके उन विचारों के निकटतम पहुँचना है जो उन रचनाओं का कारण बने। कविताएँ पढ़ते समय तो इसे एक नियम ही समझिए क्योंकि अनुवाद में झोल होने का खतरा कविताओं में अधिकतम है।

लेकिन एक पहलु यह भी है कि हर पाठक साहित्य को लेकर इतना भावुक नहीं होगा और न ही हर किसी के पास अपने पसंदीदा लेखकों के आधार पर दूसरी भाषाओं को सीखने का समय ही होगा। व्यवहारिक मजबूरी है, आज के समय में समझी जा सकती है। इसीलिए मैंने अपने भावुक मन को, कविताओं को छोड़कर, कहानी और उपन्यास पढ़ते समय इतनी सहूलियत दे दी कि भाषा बदलकर भी बिना गिल्ट के पढ़ सकूँ और नीले कवर में पीले शीर्षक वाली यह किताब उठा ली। आप भी यदि केवल भाषा की वजह से रस्किन बॉन्ड जैसे किसी भी लेखक को पढ़ने से वंचित रह रहे हों तो बिना सोचे अनुवादित प्रति खरीदिए और पढ़िए। वैसे भी यह लेखकों को उनकी मूल भाषा में पढ़ने वाली बात ज़्यादातर पाठक अपनी ही भाषा के लेखकों के बारे में कहते हैं। अजीब है लेकिन सच है। चलिए अब किताब की बात करते हैं..

‘The Night Train at Deoli’ का यह हिन्दी संस्करण राजपाल प्रकाशन से पिछले ही साल यानि 2016 में प्रकाशित हुआ है। 200 पेज की किताब में कुल 17 कहानियाँ हैं जिनमें से पहली ‘नाइट ट्रेन ऐट देओली’ ही है। कहने की ज़रुरत नहीं कि पूरी किताब में पहाड़, झील, झरने, आकाश के रंग, मौसम, फूल, क्यारी, बरसात भरपूर हैं और बड़ी ही सुहानी और महकती तासीर के साथ। शुरू की कहानियों में जहाँ बचपन का प्यार, पतंगों की पेंच, आस-पड़ोस का हँसी-ठट्टा और कुछ हलके-फुल्के किस्से हैं, वहीं यह किताब सेकंड-हाफ आते ही लगने लगता है, दोबारा शुरू हुई है। एक के बाद एक कहानियाँ आपको सहज और सरल दिखने वाले पात्रों के जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से उनके पसीजते मन की सारी सीलन महसूस करा देती हैं।

‘पिता के फलते-फूलते पेड़’ कहानी की शुरुआत देखिए-

“हमारे पेड़ देहरा में अब भी खड़े हैं। दुनिया के इस हिस्से में अब भी पेड़ आदमी की बराबरी करते हैं। एक मकान बनाने के लिए एक पीपल को काट कर जगह बनायी जाए, तो मकान की दीवारों में दो पीपल उग आएँगे। देहरा में हवा में नमी रहती है और मिट्टी बीजों और गहराई में घुसने वाली जड़ों का स्वागत करती है।”

पेड़ों से यह जुड़ाव हो या स्टेशन से तांगा लेते समय बीते वक़्त की याद, वह मर्म जिसे नॉस्टैल्जिया कहते हैं, साफ़ झलकता है-

“स्टेशन से मैं तांगा करता हूँ। मैं टैक्सी या ऑटो रिक्शा भी कर सकता हूँ, जिनका कि 1950 से पहले नामोनिशान भी नहीं था, लेकिन मैं बेशर्मी ओढ़कर गुज़रे ज़माने की यादों की तीर्थयात्रा पर निकला हूँ, इसलिए मैंने तांगा किया जिसमें एक बदहवास सा टट्टू जुता था और उसे हाँक रहा था फटी सी हरी सदरी पहने मुसलमान तांगेवाला।”

मुझे भी पेड़ों से एक अलग ही लगाव है। मुझे इस पूरी सृष्टि में पेड़ों से अधिक मनोहर और दिलचस्प कोई वस्तु नहीं लगती। शायद इसीलिए पेड़ों से जुड़े प्रसंग मेरा ध्यान आकर्षित करना कभी नहीं भूलते-

“शायद पेड़ के इस व्यवहार की कोई वैज्ञानिक व्याख्या हो- जिसमें बरामदे की रोशनी और गुनगुनाहट का इससे कोई लेना-देना हो- लेकिन मुझे यह सोच कर अच्छा लगता है कि पेड़ का वह अंग मेरे पिता जी के लिए अपने प्यार की वजह से उनकी ओर बढ़ रहा था। कभी जब मैं किसी पेड़ के नीचे अकेला बैठता था, तो मैं कुछ अकेला और खोया-खोया सा महसूस करता था। लेकिन जब मेरे पिता साथ आ जाते थे, तो माहौल खुशनुमा हो जाता था और मुझे महसूस होता था कि पेड़ का रवैया मेरे प्रति ज्यादा दोस्ताना हो गया है।”

‘बचपन के वो दिन’ कहानी में रस्किन अपने पुराने मकान के सामने खड़े होकर यह याद करते हैं कि इसके आँगन में खड़े कटहल के पेड़ के तने में जो मेडल छुपाया था क्या वह आज भी वहीं होगा? अब उस घर में एक परिवार रहता है जिसमें एक छोटी लड़की है। जब उस लड़की को पता चलता है कि कई सालों से एक मेडल वहाँ रखा है तो वह झट से पेड़ पर चढ़कर वो मेडल ढूँढ लेती है लेकिन रस्किन अब वह मेडल नहीं लेते, अब वह उस लड़की का है। रस्किन की वह बीते दिनों को फिर से जीने की चाह और एक अनजानी सी हूक किसी का भी दिल पिंघला देने के लिए काफी है।

‘मधु की गति न्यारी’ में रस्किन का लगाव एक छोटी लड़की से होता है जो अचानक ही रस्किन और इस संसार से विदा लेने का निश्चय कर लेती है जब रस्किन उसकी बढ़ती उम्र को देखकर उससे बोर्डिंग में जाने की बात करते हैं। एक निश्चित की गयी दूरी को सहन करने की असमर्थता एक नई दूरी बना देती है, कभी न मिटने के लिए, यह बात यह कहानी एक ऐसे ढंग से पाठक के सामने रखती है जिसकी अपेक्षा कोई भी पाठक फूल, पेड़ और क्यारियों में खेलती रस्किन की कहानियों से नहीं करता। किन्तु इसी अपेक्षा का टूटना यह भी बता जाता है कि जीवन चक्र पहाड़ों पर भी उसी गति से चलता है, जिस गति से मैदानी इलाकों में।

किताब की अन्तिम कहानी ‘एक दर्द भरा गीत’ कुछ ऐसे शुरू होती है-

“आकाश की शुद्ध नीलिमा के नीचे इस मटमैली चट्टान के सहारे बैठा, मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ, सुशीला। नवंबर का महीना है और घास पीली-भूरी सी होती जा रही है। लेकिन हाथ में लेकर मसल दो, तो उसमें से अब भी खुशबू आती है। दोपहर की धूप बांज के पत्तों पर पड़ती है तो उन्हें रूपहला बना देती है और वो झिलमिलाने लगते हैं। एक झींगुर लम्बी घास में अपना सफ़र तय कर रहा है। पहाड़ी के पैरों के पास से गुज़रती नदी गुनगुनाती जा रही है- वही नदी जहाँ मई की उस सुनहरी दोपहर मैं और तुम देर तक साथ रहे थे।”

अपने से आधी उम्र की लड़की के प्रेम में पड़कर किए गए अनुभव, रोमांच और संवेदनशील क्षणों को दिखाती रस्किन की इस कहानी का अंत थोड़ा असंगत महसूस हुआ लेकिन वह एक जबरदस्ती के किसी उद्दंड अंत से तो बेहतर ही है।

कहानियों के अलावा चूँकि यह एक अनुवादित किताब है तो बताना आवश्यक समझता हूँ कि कहीं भी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं रस्किन को उनकी मूल भाषा में नहीं पढ़ रहा हूँ। रस्किन की किताबों में पायी जाने वाली ताज़गी और परिपक्वता दोनों को संजोकर रखा गया है। अनुवाद होने के बावजूद बीच-बीच में ऐसे कोई शब्द या शब्द-विन्यास नहीं देखे गए जो पढ़ते समय पाठक को एकदम खटक जाएँ। सभी कहानियाँ और उनकी भाषा देहरा में पहाड़ों से निकलती नदियों का प्रवाह ही ग्रहण करती हुई प्रतीत होती हैं।

रस्किन हैं तो कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, फिर भी कह दूँ कि कुछ हलकी-फुल्की लेकिन सशक्त कहानियाँ पढ़ने का मन करे तो इस किताब को उठाने में ज़रा भी संकोच मत करिएगा। हल्की बौछारों सी महसूस होती हैं यह किताब..।

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पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!