‘Tum Jalte Rahoge, Hum Jalate Rahenge’, a poem by Manjula Bist

एक गणमान्य-तीर तुम्हारी नाभि पर लगा, रावण!
फिर तुम दस शीशों के साथ धू-धू जल उट्ठे।

न जाने कहाँ से इतना ऐतिहासिक-कौतूहल लौट आता है
हर बरस लोकमानस के भीतर…
सामूहिक-हर्षोल्लास का चरम!
अपार करतल ध्वनि से तुम्हारे स्व का मानमर्दन!
तुम्हारी भस्मता पर तिक्त-मुस्कान!
तुम्हारे पिघलते मुकुट को इंगित करती सैकड़ों अंगुलियाँ!

तुम्हारे भीमकाय पुतले को जलता देख
यह विश्वास करने वाले पुनः सन्तुष्ट थे कि
संसार में सत्य की जीत होती है
अधर्म पर धर्म विजयी होता है
उन्होंने स्वयं को धन्य समझा कि
वे अभी तक इन अर्थों में जीवित हैं।

और कुछ लोग जो
आधुनिक तकनीकी का मुज़ाहिरा देखने आए थे
उन्हें पटाखों का चमकीला शोर कम लगा
वे फुस्स होते पटाखों पर हाथ-पाँव पटककर झल्लाए भी।

स्तिथिप्रज्ञ होने के अभिलाषी लोग
मेघनाद का क़द छोटा लेकिन आकर्षक मानते थे।

तो सामाजिक-क्रांति की पैरोकार क़लमें
कुम्भकर्ण के पेट से हैरान-परेशान दिखे!
वे उस कारीगर से मंत्रणा करना चाहते थे
जिसने पेट को कुछ अधिक चौड़ा बनाया था
उनके लिए
पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के सपने देखने वाले देश में
भूख से मरते लोगों के बीच
इस तरह की निर्लज्ज व ढीठ पेट की कल्पना करना ही
अमानवीयता थी!

भीड़ के बीच बमुश्किल साँसें लेता एक वर्ग भी था
जिसे तथाकथित पर्यावरणविद का तमगा प्राप्त था
वह ‘च.. च.. च!’ की ध्वनि के साथ
अपनी मुण्डी को दोलन-गति करवा रहे थे
उनकी दृष्टि आकाश पर छाते धुएँ पर टिकी थी
उन्होंने अपने साथी से इसे रोक पाने की अवशता प्रकट की
और नाक पर झक्क सफ़ेद रुमाल रख लिया!

एकाध लोग जो
स्वभाववश निपुण अर्थशास्त्री थे
जब उन्होंने इस आयोजन को फ़िज़ूल घोषित करते हुए अपनी खुसरपुसर को लम्बा किया
तो कुछ संवेदनशील हृदय ने उन्हें नोटिस किये जाने तक शिद्दत से घूरा।

इसी बीच तुम अधिक तेज़ी से जलकर सबको चुप करा गए!

रावण-दहन से लौटे लोग
जब जूतों पर लगी तुम्हारी भस्मगन्ध को झाड़ रहे थे
तब तुमने अवश्य ही गर्वपूर्ण अट्टहास किया था
लेकिन अट्टहास की अंतिम लहर पर तुम एकाएक मौन थे!

तुम मौन थे…
कि क्यों नहीं एक अन्य लक्ष्मण फिर कभी
तुम्हारी भस्मगन्ध के पास लौट सका है?

अपने काल के महाज्ञानी थे, तुम!
निश्चित तौर पर स्वीकार कर चुके थे कि
तुम्हारे वार्षिक-दहन पर हर पीढ़ी
इसी ऐतिहासिक-कौतूहल से बस ….बार-बार भर उट्ठेगी!
तुम्हारे दुर्गुणों को जलाकर
स्वयं को अपराधमुक्त करेगी

और इसी तरह
तुम जलते रहोगे… हम जलाते रहेंगे!

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मंजुला बिष्ट
बीए. बीएड. गृहणी, स्वतंत्र-लेखन कविता, कहानी व आलेख-लेखन में रुचि उदयपुर (राजस्थान) में निवास इनकी रचनाएँ हंस, अहा! जिंदगी, विश्वगाथा, पर्तों की पड़ताल, माही व स्वर्णवाणी पत्रिका, दैनिक-भास्कर, राजस्थान-पत्रिका, सुबह-सबेरे, प्रभात-ख़बर समाचार-पत्र व हस्ताक्षर, वेब-दुनिया वेब पत्रिका व हिंदीनामा पेज़, बिजूका ब्लॉग में भी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं।