तुम क्यों लिखते हो? क्या अपने अन्तरतम को
औरों के अन्तरतम के साथ मिलाने को?
अथवा शब्दों की तह पर पोशाक पहन
जग की आँखों से अपना रूप छिपाने को?
यदि छिपा चाहते हो दुनिया की आँखों से
तब तो मेरे भाई, तुमने यह बुरा किया!
है किसे फ़िक्र कि यहाँ कौन क्या लाया है?
तुमने ही क्यों अपने को अद्भुत मान लिया?
कहनेवाले जाने क्या-क्या कहते आए
सुनने वालों ने मगर कहो क्या पाया है?
मथ रही मनुज को जो अनन्त जिज्ञासाएँ
उत्तर क्या उनका कभी जगत में आया है?
अच्छा बोलो, आदमी एक मैं भी ठहरा
अम्बर से मेरे लिए चीज़ क्या लाए हो?
मिट्टी पर हूँ मैं खड़ा ज़रा नीचे देखो
ऊपर क्या है जिस पर टकटकी लगाए हो?
तारों में है संकेत? चाँदनी में छाया?
बस यही बात हो गई सदा दुहराने की?
सनसनी, फेन, बुदबुद, सब कुछ सोपान बना
अच्छी निकली यह राह सत्य तक जाने की।
दावा करते हैं शब्द जिसे छू लेने का
क्या कभी उसे तुमने देखा या जाना है?
तुतले कम्पन उठते हैं जिस गहराई से
अपने भीतर क्या कभी उसे पहचाना है?
जो कुछ खुलता सामने, समस्या है केवल
असली निदान पर जड़े वज्र के ताले हैं,
उत्तर शायद हो छिपा मूकता के भीतर
हम तो प्रश्नों का रूप सजाने वाले हैं।
तब क्यों रचते हो वृथा स्वाँग मानो सारा
आकाश और पाताल तुम्हारे कर में हों?
मानो मनुष्य नीचे हो तुमसे बहुत दूर
मानो कोई देवता तुम्हारे स्वर में हो।
मिहिका रचते हो? रचो; किन्तु क्या फल इसका?
खुलने की जोखिम से वह तुम्हें बचाती है?
लेकिन मनुष्य की आभा और सघन होती
धरती की क़िस्मत और भरमती जाती है।
धो डालो फूलों का पराग गालों पर से
आनन पर से यह आनन अपर हटाओ तो,
कितने पानी में हो? इसको जग भी देखे
तुम पल-भर को केवल मनुष्य बन जाओ तो।
सच्चाई की पहचान कि पानी साफ़ रहे
जो भी चाहे, ले परख जलाशय के तल को।
गहराई का वे भेद छिपाते हैं केवल
जो जानबूझ गंदला करते अपने जल को।