वसीयत एक ऐसा काम है जिस की अहमियत को आज लोग – पढ़े लिखे भी – तरीके से नहीं समझते। जो समझते हैं, वो उसे अपनी जिन्दगी के आखिरी पड़ाव की जरूरत का दर्जा देते हैं, वसीयत करने के अहम, बल्कि अहमतरीन, काम को टालते रहते हैं और खुद को भरमाते रहते हैं कि अभी उनका आखिरी पड़ाव दूर था, करीब पहुंचेगा तो… देखेंगे।
तब भी अभी देखेंगे।
इस हकीकत को बराबर नज़रअन्दाज़ करेंगे कि उन का मुकाम अब गॉड के एयरपोर्ट के डिपार्चर लाउन्ज में था।
इसी वजह से अधिकतर ऐसे लोग इन्टैस्टेट (INTESTATE)- बिना वसीयत किये – मर जाते हैं और अपने आश्रितों के लिए कोई कानूनी दुश्वारियां खड़ी कर जाते हैं। खुद मेरे पिता इन्टैस्टेट स्वर्गवासी हुए थे जब कि वसीयत की ज़रुरत को, अहमियत को बखूबी समझते थे। कभी वसीयत याद आ जाती थी तो मेरे से कहते थे – “तू मेरे से वसीयत करवा ले।” अपने पिता के आगे मुंह खोल पाने में अक्षम मैं नहीं कह पाता था कि वसीयत करवाई नहीं जाती थी, की जाती थी। बहरहाल, ऐसे लोग नहीं सोचते, नहीं तसलीम करते कि, बकौल हैरत इलाहबादी, ‘आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस का है, पल की खबर नहीं’।
इसी बात को कबीर जी ने यूं कहा है:
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की जात,
देखत ही छिप जायेगा, ज्यों तारा परभात।
लेकिन क्या कीजिएगा! हर किसी को खुशफहमी है कि जो दूसरे के साथ बीती, वो उसके साथ नहीं बीतेगा। कुछ नादान इस साइकोलॉजिकल प्रेशर से मुब्तला होते हैं कि वसीयत करने से जो उन का है, वो उन का नहीं रहेगा; वसीयत करने से उन के हाथ से ताकत निकल जायेगी – जैसे वसीयत वसीयत न हो, रिलिंक्वशमेंट डीड हो जो घोषित करता हो, प्रमाणित करता हो कि साइन करने वाले ने सब त्याग दिया।
बाज लोगों को विरसे का मुनासिब कैंडिडेट चुनने में दिक्कत महसूस होती है, हमेशा ‘ये इसे नहीं, वो उसे नहीं’ की पशोपेश में ऐसे लोग पड़े रहते हैं। ऐसी एक धनाढय दादा मां के वारिस तो उसकी पीठ पीछे आम कहते थे कि ‘वो विल (will) करेगी ही नहीं ‘, जब करेगी ‘वोंट (won’t) करेगी ‘।
एक बुजुर्गवार बहुत कम सुन पाते थे लेकिन विल के मामले में जिम्मेदार थे जो कि उन्होंने बराबर की हुई थी। एक बार अपने किसी हमउम्र दोस्त की राय पर उन्होंने चुपके से इनसाइड कनाल, इनविजिबल हियरिंग एड लगवा ली जिसकी बाबत उन्होंने अपने विशाल कुनबे में किसी को कुछ न बताया।
नतीजा क्या निकला।
उन्होंने दस दिन में तीन बार वसीयत बदली।
एक साहब को साठ की उम्र में मासिव हार्ट अटैक हुआ तो जैसे अपनी मृत्यु शैय्या पर पड़े-पड़े उन्हें वसीयत करने का ख्याल आया। आपनी धर्मपत्नी की मौजूदगी में उन्होंने अपने वकील को तलब किया और उसे अपनी वसीयत डिक्टेट करवाने लगे:
“कोठी रमेश को….”
“अरे, सुरेश के नाम करो।” – बीवी ने राय दी – ‘रमेश के पास पहले ही अपना एचआईजी फ्लैट है।’
“ठीक। तो कोठी सुरेश को। और शोरूम कैलाश को….”
“लो! शोरूम कैलाश को! वो इतनी बढ़िया विलायती फर्म की नौकरी करता है, वो क्या शोरूम चलायेगा! शोरूम दो रमेश को।”
“ठीक। शोरूम रमेश को। बैंक बैलेंस नरेश को….”
“खामखाह! मेरे पल्ले भी कुछ छोड़ोगे कि नहीं?”
“ठीक। बैंक बैलेंस मेरी पत्नी दमयंती को; और मेरे शेयर्स और डिबेंचर्स मेरी एक्लौती बेटी कमलेश को….”
“सब उसका निकम्मा, निखट्टू घरवाला हजम कर जायेगा। अरे, ये सब नरेश के लिए छोड़ो…..”
तब उन साहब का धीरज छूट गया, वो चिल्लाये-“अरे, कम्बख्तमारी! मर कौन रहा है? मैं या तू?”
वसीयत के बारे में अधिकतर लोगों को भ्रान्ति है कि वो स्टाम्प पेपर पर होती है। हमारी हिंदी फिल्मों में तो खासतौर से वसीयत को स्टाम्प पेपर पर दर्ज दिखाया जाता है जो कि गलत है। विल प्लेन पेपर पर होती है। ऐसा होना इसलिए ज़रूरी माना गया है कि अगर किसी को अपनी निश्चित मौत से पहले एकाएक वसीयत करनी पड़ जाये तो क्या तब वो स्टाम्प पेपर ढूँढने निकलेगा! वसीयत सादे कागज पर ही होती है अलबत्ता उस पर दो गवाहों की गवाही ज़रूरी होती है। वसीयत को रजिस्ट्रार के आफिस में रजिस्टर करने का रिवाज़ है लेकिन वो कोई नियम नहीं है, हुकूमत का फरमान नहीं है, अनरजिस्टर्ड विल भी पूरी तरह से वैलिड होती है, अलबत्ता रजिस्टर्ड विल ज्यादा सिक्केबंद होती है क्यों कि उस पर विल करने वाले की फोटो चस्पां होती है और रजिस्ट्रार के दफ्तर में उसका रिकॉर्ड होता है। यानि ऐसी विल नष्ट भी हो जाये तो रजिस्ट्रार के आफिस से उसकी कापी निकलवाई जा सकती है।
रजिस्टर्ड विल की दूसरी एडवांटेज ये है कि उसे सादे कागज़ पर दर्ज की गई विल कैंसल नहीं कर सकती, भले ही वो कितनी भी ठोस हो, प्रमाणिक हो। रजिस्टर्ड विल को रजिस्टर्ड विल ही कैंसल कर सकती है। और उसे रजिस्टर करने के लिए विल करने वाले को रजिस्ट्रार के ऑफिस में उसके सामने पेश होना पड़ता है। लिहाजा वैसे तो कलयुग में जो न हो जाये थोड़ा है लेकिन रजिस्टर्ड विल में फ्रॉड के चांसिस न के बराबर हैं।
वसीयत की एक ये भी महिमा है कि ये भी जासूसी उपन्यासों में क़त्ल की बहुत मौजूं, बहुत मजबूत बुनियाद होती है क्योंकि इनफीडिलिटी (INFIDELITY) यानी बेवफाई, धोखा, बूढ़ा खाविन्द-जवान बीवी- भी वसीयत करने की या की हुई वसीयत को बदलने की स्वाभाविक बुनियाद होती है। कौन बेवफा बीवी को अपना वारिस बनाना चाहता है, उसके लिये चुपड़ी और दो दो का इंतजाम करके जाना चाहता है! खुद आप के खादिम के कितने ही सुधीर और सुनील सीरीज़ के उपन्यासों की बुनियाद वसीयत- उस की नाइंसाफियां या उसकी हेराफेरियां- हैं।
कहते हैं कि कोई कुछ अपने साथ नहीं ले जा सकता, सब कुछ यहीं छोड़कर जाना पड़ेगा, क्योंकि कफन में जेबें नहीं होती। यानि ‘सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बंजारा’। कोई कुछ साथ नहीं ले जा सकता लेकिन, महापुरुषों ने कहा है कि, अपने से पहले आगे भेज सकता है।
कैसे?
दान पुन्य के जरिये।
दान पुन्य ऐसी क्रैडिट फैसिलिटी है जो ‘ऊपर’ बाकायदा आपके खाते में दर्ज होती है।
पर क्या किया जाये! लोग बहुत आशावादी हैं। समझते हैं कि सब साथ ढो ले जायेगें। ऐसी सोच वाले एक सज्जन ने अपना तमाम मालपानी पैक करके ऊपर घर की बरसाती में रख दिया कि जब स्वर्गवासी होंगे तो रास्ता तो वो ही होगा, साथ लेते जायेगें।
ऐसा न हो सकता था, न हुआ।
लेकिन इस संदर्भ में उनकी बीवी का कमेंट गौरतलब है:
“कितना नादान था मेरा पति! सब पैक करके बरसाती में रखा, इस खुशफ़हमी में कि मर कर स्वर्ग जायेगा। बेसमेंट में रखता तो कोई बात भी थी।”
कई लोग ऐसे होते हैं जो वसीयत करने को अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते, खुंदक निकलने का जरिया समझते हैं। ऐसे एक शख्स को उसकी बीवी घर में सिगार नहीं पीने देती थी। वो जब मारा तो उसने अपनी करोड़ों की संपत्ति अपनी पत्नी के नाम इस शर्त के साथ छोड़ी कि वो हर रोज़ पांच सिगार पिएगी।
सत्रहवीं सदी में लन्दन के एक नोबलमैन अर्ल आफ पैम्ब्रोक की विल में हेनरी गिल्डमे नामक व्यक्ति के बारे में, जिससे नोबलमैन को सख्त नफरत थी, प्रावधान था कि जो कोई भी हेनरी गिल्डमे की तगड़ी धुनाई करे, उसे नोबलमैन के विरसे में से पचास पाउंड अदा किये जाएँ। अब ये दीगर बात है कि उस रकम का अधिकारी कभी किसी ने न बन कर दिखाया।
न्यू जर्सी के एक साहब ने अपनी विल में अपनी बीवी का जिक्र यूं किया:
अपनी वसीयत के जरिये मैं अपनी बीवी अन्ना के लिए (जो साली कतई किसी काम की नहीं ) एक डालर छोड़ता हूं।
एक साहब ने तो हद ही कर दी जब कि उन्होंने अपनी बीवी के नाम पांच हज़ार पाउंड इस शर्त के साथ छोड़े कि वो उस रकम को तभी खर्च कर सकती थी जब कि उसकी मृत्यु हो चुकी हो।
यानि वो रकम बीवी के अंतिम संस्कार पर ही खर्च की जा सकती थी।
एक शुद, संस्कारी, हिन्दोस्तानी, कर्मकांडी ब्राह्मण सज्जन को पुनर्जन्म पर इतना प्रबल विश्वास था कि अपनी वसीयत में उन्होंने अपना सब कुछ खुद अपने नाम छोड़ा।
एक अन्य खुन्दकी, बीवी के सताये, साहब की वसीयत का एक अंश मुलाहजा फरमाइए:
मैं अपनी पत्नी के नाम एक डालर इस शर्त के साथ करता हूं कि वो उससे एक रस्सी खरीदे और खुद को फांसी लगा ले।
गनीमत है कि हर मरने वाले का मिजाज इतना उग्र, इतना खुन्दकी नहीं होता। मसलन 1946 में कैलिफ़ोर्निया में लुई गार्डीयोल नामक के एक साहब जब मरे तो एक खास रकम अपना जनाजा उठाने वालों के नाम इस हिदायत के साथ छोड़ के गये कि अंतिम संस्कार के बाद वो सब नजदीकी बार में जायें और छक के शराब पियें।
ऐसा ही एक वसीयत जार्ज लोफकोट नाम के एक साहब ने लन्दन में की जिसमें उन्होंने पास पड़ोस के नौजवान लड़कों के नाम दो हजार पाउन्ड इस हिदायत के साथ छोड़े कि वो सब हर इतवार को दोपहर बाद एक बजे करीबी बार में जाकर उनकी सेहत के लिए जाम पियें और ऐसा तब तक कर करते रहें जब तक वो रकम चुक न जाए।
ऐसी भी मिसाल हैं कि लोगबाग अपने विरसे से ऐसे लोगों को नवाज कर गये जिनको वो मामूली तौर से जानते थे या कतई नहीं जानते थे। मसलन 1967 में स्वर्गवासी हुए लन्दन के डोनाल्ड नॉर्मन नामक व्यक्ति ने एक खास रकम बस के एक खास रूट के बस कंडक्टरों के नाम छोड़ी क्योंकि उन्होंने उस रूट पर बीस साल सफर किया था और यूं वे सब को ‘थैंक्यू’ बोलना चाहते थे।
एक साहब अपना सर्वस्व एक ऐसी महिला के नाम लिख गए थे जिस को उन्होंने कुछेक बार एक ऑपेरा में देखा था या पार्क में देखा था लेकिन कभी बात नहीं की थी, क्योंकि उन्हें उस महिला की नाक-रिपीट, नाक- पसंद आ गयी थी।
एक फ्रांसिसी साहब अपनी तमाम चल अचल संपत्ति एक ऐसी महिला के नाम कर के मरे जिस ने बीस साल पहले उन से शादी करने से इनकार कर दिया था।
क्यों?
क्योंकि उस इंकार की वजह से कुंआरे रहकर जो ज़िन्दगी का तुल्फ उठाया, जो भरपूर मौजमेला किया, जो खुदमुख्तारी और आज़ादी उन्होंने एन्जाय की, वो वो शादी कर लेते तो कभी न भोग पाते।
एक साहब लिखत में बीवी के लिये हिदायत कर के मरे कि उन के बाद वो उनके दोस्त सुरेश से शादी कर ले वर्ना वो खुद को विरसे से महरूम समझे।
वजह?
वो सुरेश से बदला लेना चाहते थे।
मरना यो कोई नहीं चाहता लेकिन बाहरले मुल्कों में मौत को स्पोर्टिंगली लेने का रिवाज़ है। इसीलिए वहां उम्रदराज लोग खुद को खुदा के कदरन करीब पाते हैं तो अपना ताबूत खुद चुनते हैं और बकायदा उसके लिए आर्डर देते हैं। इसी प्रकार लोग अपनी कब्र की जगह खुद चुनते हैं और उस पर लगाये जाने वाले स्टोन -शिलालेख- की बाबत खुद हिदायत करके जाते हैं। एक साहब ने स्टोन की बाबत अपनी वसीयत में अपनी वारिस बीवी के लिये खास हिदायत लिखी कि वो पचास हजार डालर आलीशान ‘स्टोन’ पर खर्च करें।
उन की मौत के बाद बीवी ने उनकी हिदायत पर बाकायदा अमल किया।
स्टोन खरीदा।
पूरे पचास हजार डालर का खरीदा।
लेकिन कौन सा ‘स्टोन’ खरीदा।
‘हीरा’ खरीदा।
स्टोन खरीदना था न दिवंगत पति की हिदायत के मुताबिक।
खरीदा न!
एक योरोपियन महिला के पति को दफनाया न गया, जलाया गया। वो उसकी चिता की राख को वास में रख कर घर ले आयी, उसने उसे बैडरूम की खिड़की की चौखट के आगे के प्रोजेक्शन पर पलटा और फूंकें मार मार कर उड़ा दिया। सारी राख उड़ गयी तो बोली:
“माई डियर डार्लिंग हसबैंड! दिस इज दि ब्लो जॉब यू आलवेज वांटेड मी टू गिव यू इन युअर लाइफटाइम।”
एक देसी साहब बाजरिया वसीयत ये ख्वाहिश बीवी पर ज़ाहिर कर के गए कि उनकी मौत के बाद उनकी एक विशाल तस्वीर ड्राइंगरूम में लगा कर रखी जाये।
पत्नी ने पति की अंतिम इच्छा पूरी की, ड्राइंगरूम में पति की बढ़िया तस्वीर लगाई।
साथ ही पति के छोटे भाई से शादी कर ली।
कोई महमान आकर ड्राइंगरूम में बिराजता था और तस्वीर के बारे में सवाल करता था तो वो जवाब देती थी:
“ये हमारे जेठ जी हैं जिन की हाल ही में मृत्यु हुई है।”
जर्मन कवि हिनरीच हाइन ने भी बाजरिया वसीयत अपनी बीवी पर ये शर्त लागू की थी कि वो उन की मौत के बाद फ़ौरन दोबारा शादी कर ले क्योंकि ‘यूं दुनिया में कोई एक शख्स तो ऐसा होगा जिसे मेरी मौत का अफ़सोस होगा।’
शिकोगा का एक सौदागर अपनी जायदाद ही नहीं, अपनी बीवी भी अपने हेड क्लर्क के नाम कर गया।
और बीवी को इस प्रावधान से कोई एतराज भी न हुआ।
कोई नितान्त अजनबियों के साथ उदार हो कर कैसे मरता है, इसकी मिसाल सन 1880 में न्यूयार्क का एक टेलर था जिसने अपनी वसीयत में लिखा:
मेरे पास 71 पतलूनें हैं, मेरी मौत के बाद जिन को एक एक करके नीलाम किया जाये और यूं हासिल हुई रकम नगर के गरीबों में बांट दी जाए। मेरी हिदायत है कि नीलामी के दौरान पतलूनों के साथ कोई छेड़खानी न की जाये, उनका कोई खास, बारीक़ मुआयना न किया जाए, उन्हें जैसी हैं, वैसी ही खरीदा जाये, और एक खरीदार को एक से ज्यादा पतलून न बेची जाये, यानी जो एक बार कामयाब बोली लगा चुके, उसे दोबारा बोली लगाने का अधिकार न हो।
टेलर की आखिरी ख्वाहिश के मुताबिक नीलामी हुई। 71 खरीदारों ने नीलामी में एक एक पतलून खरीदी तो हर किसी ने अपनी खरीदी पतलून की एक जेब को धागे से सिला पाया। उत्सुकता के हवाले किसी ने धागा उधेड़ा तो पाया:
नीलाम हुई हर पतलून की जेब में हजार डालर थे।
ऐसी ही एक मिसाल एक अंग्रेज कंजूस की है जिस की वसियत भी उसके मिजाज़ के मुताबिक थी:
साली के लिए चार स्टाकिंग जो मेरी बैड के नीचे दायीं तरफ हैं, भतीजे के लिए दो ऊनी मौजे जो बैड के नीचे बायीं तरफ हैं, भांजे के लिए वो जग जिसका हैंडल टूटा हुआ है।
भांजे को विरसे के हासिल की खबर हुई तो वो ऐसा आगबबूला हुआ कि उसने बिना हैंडल के नामुराद जग को दीवार पर फेंक कर मारा। नतीजतन जग टूट गया और उसमें से जैसे सोने की अशर्फियों की बरसात हुई।
वैसी ही अशर्फियाँ मोजों और स्टाकिंग्स में से भी निकलीं।
हेनरी ड्यूरेल नामक एक करोड़पति सज्जन के वारिस उनके तीन भतीजे थे जिन की बाबत वो फैसला नहीं कर पा रहे थे कि आखिर किसे अपना सोल बैनीफिशियेरी करार दें। तब उन्होंने अपनी वसीयत में दर्ज कराया कि फैसला पासे फेंक कर किया जाए।
तीनो भतीजों ने बारी बारी से पासे फेंके और एक के- रिचर्ड ड्यूरेल नाम के भतीजे के- सच में ही पौ बारह हो गए।
और सब से अनोखी वसीयत चैकोस्लोवाकिया के जॉन जिजका नाम के एक जनरल की थी जो मौत के बाद भी अपनी फौज के साथ बने रहने का अभिलाषी था। लिहाजा उसने अपनी वसीयत में दर्ज कराया कि उसकी मौत के बाद उसकी चमड़ी उधेड़ कर उसका एक ड्रम बनाया जाए और वो ड्रम युद्ध के मैदान में उसकी फौज के आगे आगे बजाया जाए।
यूँ वो अपनी मौत के बाद भी अपनी फौज का नेतृत्व करने में सफल हुआ।
आखिर में एक संजीदा वसीयत का एक मजाहिया अंजाम देखिए:
अखबार में एक विज्ञापन छपा:
बिकाऊ है
मर्सिडीज एसएलआर मकलारेन रोडस्टर
कीमत: 5000 रूपये
जिस किसी ने भी विज्ञापन पढ़ा, कीमत के मामले में उसे मिसप्रिंट माना- 5 करोड़ की कार कैसे 5000 की हो सकती थी- और उसे नज़रअन्दाज़ कर दिया।
एक सरदार साहब ने भी वो विज्ञापन पढ़ा तो मिसप्रिंट ही माना लेकिन उत्सुकता के मारे वो फिर भी विज्ञापन में दर्ज पते पर पहुँच गए।
और आगे विज्ञापन देने वाली महिला से मिले जो कि बेवा के सफ़ेद लिबास में थी।
“मैम” – वो बोले – “वो मर्सिडीज जिसका आज एड था…”
“गैराज में खड़ी है, देख लीजिए।” – महिला बोली।
“वो तो मैंने अभी देखी लेकिन कीमत…”
“पाँच हजार रूपये।”
“सच में? कोई मिसप्रिंट नहीं?”
“नहीं।”
“कागजात चौकस? आपकी मिल्कियत चौकस? सेल डीड साइन करेंगी? इमीजियेट डिलीवरी देंगी?”
“हाँ।”
चमत्कृत सरदार साहब ने पाँच हजार रूपये अदा किए, कागजी कार्यवाही पूरी की और मर्सिडीज का पोजेशन ले लिया।
“मैम” – वो विनीत भाव से बोले – “अब तो बता दीजिए कि इस डील में क्या भेद है, क्या पेच है?”
“वो क्या है कि” – महिला लापरवाही से बोली – “मेरे हसबैंड का छप्पन साल की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से स्वर्गवास हो गया। वो अपनी वसीयत में अपनी तमाम चल और अचल सम्पत्ति मेरे नाम करके गए हैं, सिवाय मर्सिडीज के जिसके बारे में लिखत में निर्देश छोड़ गए हैं कि उसे बेच दिया जाए और बिक्री में हासिल रकम उनकी नौजवान प्राइवेट सैक्रेट्री के हवाले कर दी जाए।”