तब मोमबत्ती केवल त्यौहारों पर खरीदी जाती थी.. खांसी के सीरप की खाली हुई बोतलों को निरमा से धोकर उसमें केरोसिन डालकर ऊपर ढक्कन में छेद कर सूत की एक पतली रस्सी डाल दी जाती थी। हमें बचपन में रोशनी इतनी ही मयस्सर थी।
तब लकड़ी से बने पटरों के झोपड़े हुआ करते थे। पूस की रातों में जब सर्द हवा चलती थी तो दो पटरों के बीच की खाली जगह से होती हुई गालों पर थपकियां देते हुए निकल जाती थी।
मुझे याद है शिशु मंदिर में एडमिशन के वक्त फीस की रसीद के पीछे ही मास्टर जी ने कहा था ..क.. ख ..ग …घ.. लिख लोगे?
मैं क.. ख.. के बाद अक्सर रुक जाया करता था। तब भी रुक गया था जब पिता जी ने कहा था… हां ग लिखा दू पाई वाला…
..हां बस इतनी ही मेहनत में अबोध में एडमिशन हो गया था!!
छुट्टियां अक्सर सभी स्कूलों की एक साथ होती थी। हम कारखाने की झोपड़पट्टियों में रहने वाले बच्चे सड़क के किनारे किनारे चला करते थे। अम्मा ने कहा था मोहल्ले के बड़े बच्चों का हाथ पकड़कर आया जाया करो। लेकिन बिल्कुल मोड़ पर अचानक एक बस आकर रुकती थी। उसमें से भी बच्चे उतरते थे, चहकते हुए। तब ये सोचा करते थे ये भी हम जैसे दिखने वाले आखिर ये हैं कौन??
बाद में पता चला यह ज्यादा फीस देने वाले महंगे स्कूलों के इंग्लिश मीडियम बच्चे हैं। मुझे तो उनके बैग बस्ते कपड़े टाई और पानी की बोतलों से भी रश्क होता था। पेंसिल छीलने के लिए कटर तो शायद सातवीं आठवीं में खरीदा था, बचपन में यह काम पिताजी करते थे। दाढ़ी बनाने के बाद जो ब्लेड खराब हो जाती थी वह पेंसिल के नोक बनाने के काम आती थी पर सख्त हिदायत थी- यह काम पिताजी ही करते थे इसलिए लिखते समय नोक न टूटे इसका पूरा ख्याल रखा जाता था।
थोड़े बड़े हुए तो एक बैठक में तखत आ गया था। बैठक क्या थी घर के आगे का हिस्सा था जहां एक तरफ चूल्हा था जिस पर बैठे-बैठे अम्मा रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाती थी और रुक रुक कर हमें 3 और 5 के पहाड़े भी लिखवा दी थी। तब ढिबरी की जगह लैंप ने ले ली थी। कितना एडवेंचर था उस ट्रांसफॉर्मेशन में। बहुत उत्सुकता थी कि पिताजी आएंगे और आज लैंप जलेगा। उसमें लगने वाली कांच में जब धुआं जम जाता था तो कितने करीने से सूती कपड़े से अम्मा उसको पोंछती थी। गोया घर का सबसे कीमती सामान हो कोहिनूर हो। उस दिवाली वही सबसे बड़ी खरीददारी थी धनतेरस की!
आंगन में गांव से लाए गए दशहरी आम का एक पेड़ था जो हम लोगों के साथ साथ ही बड़ा होता गया। पिताजी सब को बहुत चाव से बताते थे गांव से लाए हैं…
शायद सन 84-85 की बात है। खूब बारिश हुई थी। इतनी कि सारे पहाड़ी नदी नाले उफान पर थे। हम सब सोए हुए थे और आधी रात को कब पानी आंगन के दरवाजे को लांघ कर चौखट तक आ गया, पता ही न चला, हालांकि लैंप की रोशनी मध्दिम थी। फिर भी उसकी कांच इतनी गर्म थी कि पानी के छूते ही चटक गई थी। घर में अंधेरा था। …अम्मा ने हम चारों को बटोरकर अंधेरे में पीपल के पेड़ वाले चबूतरे के पास पहुंचाया… मोहल्ले के बाकी लोग भी वही थे सबसे काबिल और संपन्न लोगों की हाथ में टॉर्च भी थी.. चारों तरफ कोलाहल था.. लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है किसी को कुछ बर्बाद होने या डूब जाने का गम नहीं था न जाने क्यों तब शायद इंसान ही घर की सबसे कीमती पूंजी हुआ करते थे।
…. सब की उम्मीद ऐसे ही लोगों से थी
जैसे तैसे सुबह हुई और आनन-फानन में कारखाने की गाड़ियों से भर भर कर मोहल्ले भर को पक्के क्वार्टरों में शिफ्ट किया गया..
यहां चिकनी दीवारें थी.. रोशनी भी थी.. लेकिन वह मजा नहीं था …दिवाली में भी जब घर आज भी पेंट पोलिश कर दिया जाता है, तो अजीब सा लगता है …मेहमान सा.. पेंट लगी दीवारों को पहचानने में थोड़ा वक्त लग जाता है.. जैसे ब्यूटी पार्लर से लौटी अपनी मेहरारू को!
बाढ़ सचमुच बहुत कुछ बहा ले जाती है ..अब वहां कई मंजिलें मकान बन गए हैं ..पर वो आम का पेड़ अभी है.. इस साल गर्मियों में भी खूब बौर लगे थे.. मैं जब भी उधर जाता हूं तो उस आम के पेड़ तक जरूर जाता हूं …अगर किसी ने पूछ लिया तो बताता भी हूं ……..यहीं कहीं मेरा आंगन डूब गया था….. मेरा बचपन छूट गया था .. रात के अंधेरे से संघर्ष करता लैंप पानी के छूते ही बुझ गया था….
वो कांच टूट गया था…