दोहे: किताब ‘मिट्टी को हँसाना है’ से
उर्दू से हिन्दी लिप्यन्तरण एवं प्रस्तुति: आमिर विद्यार्थी
तेरे मेरे ख़ून की, क़ीमत कौन लगाए
साहूकार से जो बचे, सड़कों पर बह जाए
कब तानोगे राम जी, अपने न्याय की डोर
चट कर जाए भेड़िया, चौपाए कमज़ोर
लाशों के अम्बार पर, सजा हुआ है मंच
अपराधी सब पंच हैं, हत्यारा सरपंच
क्या जाने क्या पी लिया, माटी ने इस बार
धरती में सुर बोये, उग आए तलवार
रपट लिखाने मैं गई, सब कुछ आई हार
डाकू से जो बच रहा, ले गया थानेदार
बच्चे टी.वी. देखकर, ख़ुश तो हुए जनाब
दुःख लेकिन इस बात का, तन्हा हुई किताब
लद गए दिन आदर्श के, सबने रखा मौन
दीमक लगी किताब को, बाँचने वाला कौन
रात ज़रा आँधी थमी, क्या-क्या आया ध्यान
रोए मिलकर देर तक, मैं और हिन्दुस्तान
ख़ून, ख़राबा, हादसा, बम, चाक़ू, तलवार
बाबा हिम्मत चाहिए, पढ़ने को अख़बार
उनके आने का सखी, अभी मिला है तार
रेल में कैसे बम फटा, झूठा है अख़बार
ये तन में होता नहीं, कब के जाते टूट
माँ का दूध ही सत्य है, बाक़ी सब कुछ झूठ
जाकर बैठें चार पल, किन पेड़ों के पास
ज़फ़र हमारे भाग में, शहरों का बनबास
साजन को जल्दी सखी, करूँ मैं कौन उपाए
काँटा समय के पाँव में, काश कोई चुभ जाए
चिड़िया गूदा खा गई, चोंच थी उसके पास
गया पपीता हाथ से, रह गई घर में बास
ये भी कोई घर हुआ, एक सा हाल मदाम
कोई प्याली ही गिरे, कुछ तो मचे कोहराम
जाना है तन से परे, अपने घर की ओर
ऐ दुःख तू भी ढूँढ ले, कोई ठिकाना-ठौर
अपने-आप से भी मिलो, छोड़ के सब संसार
हर दिन तो मुमकिन नहीं, लेकिन कभी-कभार
रंग, मिठाई, रौशनी, एक से एक उपहार
क्या जाने क्यों जी डरे, जब आए त्यौहार
खुली ज़मीं, फैला गगन, जीवन का आकार
तेरे मेरे ख़ौफ़ हैं, सरहद और दीवार
पढ़ने को सात आसमां, लिखने को पाताल
ले दे कर कुल ज़िंदगी पैसठ-सत्तर साल
चढ़कर ऊँची सीढ़ियाँ, हासिल किया मक़ाम
नीचे आना लौटकर, कितना मुश्किल काम
मिलना हँसना, रूठना आँसू, दुआ, सलाम
सुंदरता, संसार में, तेरे कितने नाम
हद से अधिक संजीदगी, सच पूछो तो रोग
आगा-पीछा सोचते, बूढ़े हो गए लोग
तारे छू, जुगनू पकड़, रच सपनों के खेल
रात की इतनी उम्र है, दीये में जितना तेल
रस ले लेना फूल से, हवा का ठहरा काम
नटखट भौंरा मुफ़्त ही, गली-गली बदनाम
तहरीरें सब खोखली, और क़लम असमर्थ
बाबा होते थे कभी, शब्दों के भी अर्थ
तीखी-मीठी थालियाँ, सारे भोजन याद
जो माँ के हाथों पके, उसका और ही स्वाद
राधा नाचे उस जगह, जहाँ पे धन का खेल
अपने घर में जल नहीं, कहाँ का नौ मन तेल
ले आते बाज़ार से, सुख के लम्हें चंद
पैसों से मिलता कहीं, जो मन का आनंद
बैठें, दम लें चार पल, समय कहाँ जजमान
जीवन भारी क़र्ज़ है, साँस-साँस भुगतान
तिनके चुन-चुन घर किया, कब जाना दिन-रैन
जाने पेड़ ने क्या कहा, गौरेया बेचैन
धरती छलनी हो गई, चारों और विनाश
भले आदमी शुक्र कर, सिर पर है आकाश
जीवन अँधियारी गली, हर जानिब से वार
पीछे ख़ूनी भेड़िए, आगे चौकीदार
जीवन जो तुझसे पढ़ा, कैसे जाएँ भूल
तुझ-सा शिक्षक कोई न तुझ-सा स्कूल
कौन सुने दरवेश की, किससे किसको लाग
अपनी-अपनी डफलियाँ, अपने-अपने राग
कब खाई में जा गिरे, खो बैठे पहचान
विज्ञापन की नोक पर, टिका हुआ इंसान!
गोपालदास नीरज के दोहे