नीरज से बातचीत

प्रेमकुमार की किताब ‘एक मस्त फ़क़ीर: नीरज’ में उन्होंने नीरज से एक विस्तृत बातचीत प्रस्तुत की है, जिसमें नीरज ने अपने निजी जीवन से लेकर मंचीय कविता की दुर्गतियों और ख़ुद को शृंगारी कवि कहे जाने पर उनकी असहमति पर भी बात की है। इसी बातचीत में से दो प्रश्नों के जवाब यहाँ उद्धृत किए जा रहे हैं, जिसमें उन्होंने उर्दू से लगाव और उसकी लोकप्रियता के कारण पर खुलकर बात की है।

उर्दू के रचनाकारों के साथ आपका जुड़ाव कैसे हुआ? उनके सामीप्य-सान्निध्य से क्या आपने कुछ पाया भी?

1944 था तब शायद! शिमला में गाँधी-जिन्ना वाले सम्मलेन के बाद एक गीत लिखा था- ‘आज मिला है गंगा जल, जल दमदम का’ यह गीत मैं दिल्ली के एक कवि-सम्मलेन में पढ़ रहा था। पढ़ने के बाद एक बुज़ुर्ग ने बुलाकर पूछा- ‘साहबज़ादे आप क्या करते हैं?’ बताया कि सप्लाई विभाग में टाइपिस्ट हूँ। सड़सठ रुपए मिलते थे तब। ‘अच्छा, कल मेरे ऑफ़िस में आइए! मैं हिन्दी लिटरेरी अस्सिटेंट बनाऊँगा तुम्हें! एक सौ बीस रुपए महीने मिलेंगे!’ ये थे हफ़ीज़ जालंधरी साहब- अपने समय के बहुत बड़े शायर थे। जैसे दिनकर पटना में थे, वैसे ही वे दिल्ली में साइंस पब्लिसिटी आर्गेनाईजेशन के डायरेक्टर थे।

वहाँ गए तो कहा गया कि गीतों के माध्यम से सरकारी योजनाओं का प्रचार करो। कवि-सम्मलेन कराने के लिए एक लाख रुपए आवंटित हुए। यू.पी., पंजाब आदि में जगह-जगह सम्मलेन कराए। तैंतालीस में बंगाल में पड़े अकाल के पीड़ितों की सहायतार्थ मारवाड़ियों ने तीन दिन का अखण्ड कवि-सम्मलेन कलकत्ते में कराया था। वहाँ गया तो अकाल पीड़ितों को खाने की चीज़ों के लिए कुत्तों से लड़ते देखा। मन काँपा तो कविता लिखी तुरन्त- ‘मैं विद्रोही हूँ, जग में विद्रोह कराने आया’। राष्ट्रीय चेतना की वह कविता बहुत लोकप्रिय हुई। चवालीस के अन्त या पैंतालीस के शुरू में देहरादून में एक सरकारी सम्मलेन कराया था। वहाँ यह कविता मैंने पढ़ी। सम्मलेन के बाद वहाँ तैनात डिप्टी कलेक्टर रशीद अहमद बुख़ारी ने मुझे बुलाया और कहा- ‘नीरज, अब तुम दिल्ली मत जाना! तुम्हारी शिकायत हुई है कि तुम सरकार के पैसे से सरकार की ख़िलाफ़त कर रहे हो!’ मैं सीधा भाग आया कानपुर।

सब सामान शाहदरे में ही छूट गया, जहाँ महाराम मुहल्ले में मैं रहता था। बाद में उनके वैसा कहने का कारण पता लगा। दरअसल उन्होंने मुझे एक साल पहले देहरादून में सुना था, प्रभावित होकर दूसरे दिन होने वाले मुशायरे के लिए रोका भी था। मुशायरे के सद्र जिगर साहब से मुझे पढ़वाने के लिए गुज़ारिश भी की थी। आग़ाज़ मुझसे कराया गया मुशायरे का। जिगर साहब ने एक के बाद एक, तीन कविताएँ मुझसे पढ़वायी थीं और हर कविता के बाद मेरी पीठ ठोंकी थी- ‘उम्रदराज़ हो इस लड़के की! क्या पढ़ता है जैसे नग़मा गूँजता है’। वे ग़ज़ल के शहंशाहे-तरन्नुम माने जाते थे। कई लोग उनके स्टाइल में पढ़ते रहे। (उनकी ग़ज़लों के कई शेर सुनाने लगे हैं) शकील ने वह स्टाइल लिया है, शकील और मैंने साथ काम किया है। वे कम्पेयरर थे। शकील बदायूँनी तब बी.ए. पास थे और हम हाईस्कूल पास। नहीं, मेरा अपना स्टाइल रहा है। सिखाने पर भी कोई नहीं सीख पाया। कविता का सीक्रेट नहीं समझ सके, स्टाइल नहीं पकड़ सके सीखने वाले लोग। दरअसल मैं नज़ले का पेशेंट हूँ, आवाज से लगता है कि मैं शराब पीकर पढ़ता हूँ।

हाँ, जज़्बी साहब की बहर मैंने ली। एक गीत लिखा- ‘ऐसी क्या बात है, चलता हूँ, अभी चलता हूँ/ गीत एक और अभी झूम के गा लूँ तो चलूँ…’ पूरा पढ़ने पर उसके भीतर की मस्ती दिखेगी। पता है टैगोर की क्या विशेषता है? उदात्त का कवि है। उससे बड़ा सब्लाइम का कवि हम पर नहीं। उनसे ही मैंने ‘सब्लीमेशन’ का सूत्र ग्रहण किया। आज का आदमी अपने संकटों में फँसा है। कविता में बुद्धि कौन लगाए? कुछ उसमें ख़ास होगा, तभी तो उर्दू का आज गाया जा रहा है। राष्ट्रभाषा का कोई गायक नहीं है। तुलसी, सूर, मीरा के भजन गाए जाते हैं। वह आज हिन्दी में क्यों नहीं है? कौन पढ़े बोझिल कविताओं को? इसीलिए कविता अलोकप्रिय हो रही है।

उर्दू शायरी के प्रति आपका प्रबल आकर्षण रहा है। आप अधिकारपूर्वक उस पर बात करते रहे हैं। इस सन्दर्भ में अभी आपने हिन्दी कविता की जिस कमज़ोरी का उल्लेख किया, उसका क्या कारण आप मानते हैं?

इसका कारण क्या बताऊँ? हिन्दी कविता ज़ुबान पर नहीं बैठती, उर्दू बैठती है। संचालन भी लोग शेर पढ़कर करते हैं। एक बड़ा गैप है, जिसे अछांदसिक कविता नहीं भरेगी। उसे कौन गुनगुनाता है? ज़्यादा-से-ज़्यादा कह देते हैं कि बढ़िया है। जो समाज के होंठों पर रहेगा, वही भविष्य में जीवित रहेगा। काग़ज़ पर छपकर, घरों और लाइब्रेरी में बन्द होकर नहीं। कितने ही कवियों की दो-चार पंक्तियाँ ही शेष रहेंगी। किताबें कितनों के पास हैं? टेनीसन, कीट्स, शैली या शेक्सपियर आज किसलिए ज़िन्दा हैं? टेनीसन की भी क्या एक-एक पंक्ति याद है?

अमरनाथ झा जी ने कानपूर के सम्मलेन में मेरे द्वारा प्रथम श्रेणी प्राप्त करने का रहस्य पूछे जाने पर बड़ी सुन्दर बात कही थी। तब मैं बी.ए. का छात्र था। कविता के लिए मेरी पीठ ठोंकते-ठोंकते मुस्कराते हुए बोले- ‘जितना याद कर लोगे वही तुम्हारा है।’ मैं नौकरी के कारण कॉलेज नहीं जा पाता था, पर अंग्रेजी की अनेक लम्बी-लम्बी कविताएँ मुझे याद थीं, लिटरेचर का एंज्वायमेंट होठों पर है। बातचीत के समय क्या किताब ढूँढकर लाओगे?