जहाँ ढेर सारा अँधेरा था
वहीं से मैंने रोशनी की शुरुआत की
जहाँ अस्तित्व में आना गुनाह था
वहीं से मैंने रोज़ जन्म लिया
जहाँ रोने तक की आज़ादी नहीं थी
वहाँ मैंने मुस्कुराहटें सहेजे रखा
जहाँ क़दमों में बेड़ियाँ थीं
थिरकने की गुंजाइश नहीं थी
वहाँ मैंने उड़ने की सम्भावना तलाश की
जहाँ ढेर सारा शोर था
वहाँ भी मैंने एकांत खोजा
जहाँ देह को ज़िन्दा रखने के लिए
मन को मार दिया जाता था
वहीं मैंने बस मन की सुनी
जहाँ अच्छा कहे जाने का
लोभ बिछाया गया था
वहीं मैंने सामान्य से नीचे
बने रहने की इच्छा की
जहाँ तनाव उभरने को सिर उठा रहा था
वहीं मैंने बेसबब हँसी ढूँढी
जहाँ बस समझौते ही समझौते थे
वहाँ मैंने बिना शर्त प्रेम किया
जहाँ से कभी कोई जवाब नहीं आया
मैंने वहाँ रोज़ ख़त लिखे।
रूपम मिश्रा की कविता 'चीख़ किस नस्ल की है'