‘Cheekh Kis Nasl Ki Hai’, a poem by Rupam Mishra
जो कवि लिख सकता था जन-सम्बन्धों की श्रेष्ठ कविताएँ
वो आजकल कुण्ठा लिख रहा है
जिसने कभी लिखी थी माँ पर अनमोल कविताएँ
आज वही औरतों पर ओछा मज़ाक लिख रहा है
जाने कैसी हवा बही है सियासत की
जो लड़का बाइस साल में
क्रान्ति और बदलाव की बात करता था
बयालीस साल में
वही परम्परा के निर्वहन की बात करता है
मानवता की बात उस रक्षक से करना मुश्किल है
जो लाशों के ढेर पर बैठा है
बलात्कार की असली पीड़ा
उस अभिनेत्री के भाव में क्यों देखना चाहते हो
जिसने जीवन भर अभिनय किया है
अन्याय से लड़ने की बात करना उस कभी बहुत ग़रीब
और भूखे रहे व्यक्ति से कठिन है
जो आज तक नहीं समझ पाया कि
भूख और ग़रीबी की बात
वो इक्कीस साल का लड़का
कैसे कर लेता है जो बहुत ही अघाये घर से आया है
बहता ख़ून देखकर जिसे द्रवित होना था
वो कब से ख़ून का भेद पहचानना सीख गया है
जो पारखी था चीख़ों का स्वर पहचानने में
कि चीख़ किस नस्ल की है
अनचिन्हार रहेगा उसके लिए करुणा का सच्चा रूप
जो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि
बहन बेटी की रक्षा होनी चाहिए
यह कहते हुए उसकी आँखों में
संसार की सारी मासूम बच्चियों के चेहरे नहीं आए थे
एक नवीं क्लास का नागरिक शास्त्र पढ़ता बच्चा
मुझसे हैरान होकर पूछता है-
वसुधैव कुटुम्बकम् किस देश की अवधारणा थी?!
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