अभी किसी नाम से न पुकारना तुम मुझे
पलटकर देखूँगी नहीं,
हर नाम की एक पहचान है
पहचान का एक इतिहास
और हर इतिहास कहीं न कहीं रक्त से सना है
तुम तो जानते हो मैं रक्त से कितना डरती हूँ
अभी वो समय नहीं आया कि
जो मुझमें वो हौसला लाए कि
मैं रक्त की अल्पनाओं में पैर रखते हुए अंधेरों को पार करूँ
अभी वो समय नहीं आया कि
चलते हुए कहाँ रुकना है—हम एकदम ठीक-ठीक जानते हों
हो सकता है कि एक अंधेरे से निकलकर
एक उजाले की ओर चलें
और उस उजाले ने छल से अंधेरा पहन रखा हो
तुम लौट जाओ
अभी मुझे ख़ुद ही ठीक-ठीक पहचान करने दो
जीवन के दोराहों की
मुझे अभी इसी भीड़ में रहकर देखने दो
उस भूमि-भाषा का नीक-नेवर
जिसमें मातृ शब्द जुड़ा है
और माँ वहीं आजीवन सहमी रहीं
मैंने खेत को सिर्फ़ मेड़ों से देखा है
मुझे खेत में उतरने दो
तुम धैर्य रखो
मैं अंततः वहीं मुड़ जाऊँगी
जहाँ भूख से रोते हुए बच्चे होंगे,
जहाँ कमज़ोर, थकी हुई, निखिद्ध सूनी आँखों की
मटमैली स्त्रियाँ होगीं
जहाँ कच्ची नींदों से पकी लड़कियाँ हों
जो ठौरुक नींद में नहीं जातीं कि
अभी घर में कोई काम पड़े तो जगा दी जाऊँगी
तुम नहीं जानते ये सारी उम्र
आल्हरि नींद को तरसती हैं
जहाँ मेहनत करने वाले हाथ होंगे
कमज़ोर को सहारा देकर उठाते मन होंगे
हम अभी बिछड़ रहे हैं तो क्या
एक-दूसरे का पता तो जानते हैं
जहाँ कटे हुए जंगल के किसी पेड़ की बची जड़ में नमी होगी
मैं जान जाऊँगी तुम यहाँ आए थे
कोई पाटी जा रही नदी का बैराज जब इतना उदास लगे कि
फफककर रोने का मन करे
तो समझूँगी कि तुम्हारा करुण मन
यहाँ से तड़प कर गुज़रा है
जहाँ हारे हुए असफल लोग
मुस्कुराते हुए इंक़लाब के गीत गाते होंगे
मैं पहचान लूँगी इसी में कहीं तुम्हारी भी आवाज़ है
हम यूँ ही भटकते कभी किसी राह पर
फिर से मिलेंगे
और रोकर नहीं, हँसते हुए
अपनी भटकन के क़िस्से कहेगें।
रूपम मिश्रा की कविता 'मैं यहाँ भी नहीं ठहरूँगी'