मैं यहाँ भी नहीं ठहरूँगी!
मैंने जन्म से देह की घृणा पी थी
सबसे आदिम सम्बन्ध बहुत घिनौना है- ये मिथ मुझे माँ के दूध में पिलाया गया है
व्यर्थ श्रेष्ठता बोध मैं सिर पर लादकर चल रही थी
पर मैं वहाँ भी नहीं ठहरी, कई रोते चेहरे मुझे पुकारने लगे थे
मैं उठकर वहाँ पहुँची थी
बहुत दिन तक वहीं रही
मैं सबसे अन्त में तुमसे मिली
फिर खो गयी तुम में
पर मुझे आशंका है घृणा फिर से जन्म ले सकती है
मैंने ढेरों हाथ हटाकर तुम्हरा हाथ पकड़ा था
पर मुझे डर है तुम जब कभी प्रगाढ़ आलिंगन के लिए अपने हाथ बढ़ाओगे तो हो सकता है मुझ में रोपी गयी वो देह घृणा फिर जाग जाए
और मैं झटक दूँ तुम्हारा हाथ!
तब तुम कहाँ जाओगे?!
मुझे निसत्व लगेंगीं तुम्हारी बेहद ख़ूबसूरत आँखें
भ्रम लगेगें तुम्हारे… तुम्हारे वो होंठ जिन पर एक चिर प्रणय निवेदन रखा है
जिन्हें जी भर देखने की मुझमें कभी क़ुव्वत न हो पायी
मुझे ग़लीज़ लगेंगीं वो पवित्र रातें जब दो जोड़ी जागती आँखें बार-बार छलक पड़ती थीं
पर धीरज रखना, मैं वहाँ भी नहीं ठहरूँगी
तुमसे छूटकर मैं प्रायश्चित के लिए किसी मन्दिर के द्वार पर खड़ी हो जाऊँगी!
तुम आर्त होकर मुझे पुकारोगे
मन्दिर के घण्टे-घड़ियाल में तुम्हारी आवाज़ नहीं सुनूँगी
मैं संसार की सारी पवित्रता को देह में स्थापित कर दूँगी
इस तरह मैं एक प्राकृतिक प्रेम की शीत हत्या कर दूँगी
मैं किसी रोती हुई सीता या अग्निकुण्ड में जली सती से सतीत्व की भीख माँगूँगी
या किसी सूर्य या इन्द्र के पैर पकड़ूँगी, मुझे याद नहीं रहेगा कुन्ती व अहल्या का दुःख
मैं वहाँ भी बहुत दिन नहीं ठहरूँगी, फिर किसी गर्भगृह में फिर से कोई बच्ची चीख़ेगी,
प्रसाद और सिक्के उठाने के जुर्म में पुजारी किसी बच्चे को पीट देगा
तब मैं वहाँ भी नहीं ठहरूँगी!
ख़ूब भटकूँगी, ठोकर भी लगेगी
अन्धेरे से रास्ता दिखायी नहीं देगा,
तुम भी नहीं लौटोगे!
मैं कटी पतंग की तरह घूमूँगी!
तभी कहीं दूर कोई भूखा बच्चा रोएगा, वो मुझे पुकार भी सकता है अगर न भी पुकारे तो भी मैं वही जाकर ठहरूँगी!
मैं आसपास बिखरी सारी किताबों को पढ़ डालूँगी
फिर उसी रास्ते से मैं फिर तुम्हारे पास आऊँगी
मैं तुम्हारे आँसुओं से तुम्हारा पता ढूँढ लूँगी
क्योंकि तुम जब-जब रोए हो
मुझे लगा कि कहीं औचक कोई दुलरुवा बच्चा किसी कड़ी निगाह से सहमकर रोया है
तुम्हारी बहुत याद आने पर मैं उस बच्ची को जाकर गले लगा लेती हूँ जो एक दिन शहतूत के पेड़ को तेल, काजर लगाने की ज़िद कर रही थी!
किसी अभिमन्त्रित यन्त्र की तरह मुझे तुम्हारा नाम रटने की लत लग गयी है
मैं तुम्हारे नाम के रंग से अपने कमरे की दीवारें रंगवा दूँगी
चादरें और पर्दे भी उसी रंग के होंगे
और इस तरह तुम्हारे नाम के आग़ोश में रहूँगी!
तुम निश्चित मेरे प्रेमी हो! तुम्हारे अंकपाश में पहरों बेसुध रही हूँ!
पर जो डर की यातना तुम्हें रात को सोने नहीं देती
उससे द्रवित होकर मेरे सीने में दूध-सा उतर आया था!
मुझे अफ़सोस है मेरी जान! मैं इस मनुष्यहन्ता युग की आँखों में झाँककर करुणा न भर सकी!