रीडर अणिमा जोशी के मोबाइल पर फ़ोन था मांडवी दीदी की बहू तविषा का।

आवाज़ उसकी घबरायी हुई-सी थी। कह रही थी, “आंटी, बहुत ज़रूरी काम है। अम्मा से बात करवा दें।”

अणिमा दीदी ने असमर्थता जतायी— “मांडवी दीदी कक्षा ले रही हैं। काम बता दें। उनके कक्षा से बाहर आते ही वह संदेश उन्हें दे देंगी बल्कि अपने सामने ही मांडवी दीदी से उसकी बात करवा देंगी। वैसे हुआ क्या है? तविषा, इतनी घबरायी हुई-सी क्यों है? घर में सब कुशल-मंगल तो है?”

परेशानी का कारण बताने की बजाय तविषा ने उनसे पुनः आग्रह किया, “आंटी, अम्मा से बात हो जाए तो…”

अणिमा जोशी को स्वयं उसे टालना बुरा लगा।

“उचित नहीं लगेगा, तविषा। अनुशासन भंग होगा। कक्षा का समय विद्यार्थियों के पढ़ने का समय है। मुझे बताओ, तविषा! मुझे बताने में झिझक कैसी?”

“नहीं आंटी, ऐसी बात नहीं है।” तविषा का स्वर भर्रा-सा आया।

तविषा ने बताया, “घर में जो जुड़वा ख़रगोश के बच्चे पाल रखे हैं उन्होंने, सोनू-मोनू, उनमें से सोनू नहीं रहा।”

साढ़े दस के क़रीब कामवाली कमला घर में झाड़ई-पोंछा करने आयी तो बैठक बुहारते हुए उसकी नज़र काठियावाड़ी सोफ़े के नीचे सो रहे सोनू पर पड़ी। जगाने के लिए उसने सोनू को हिलाया, ताकि सोफ़े के नीचे वह ठीक से सफ़ाई कर सके। उसके जगाने की सोनू पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह बुदबुदायी—घोड़े बेचकर सो रहा है शैतान! अबकी उसने उसे लगभग झकझोरा बल्कि उसकी टाँग पकड़कर उसे सोफ़े के नीचे से बाहर घसीट लिया। सोनू-मोनू की चौकड़ियाँ, छुप्पा-छुपौवल साफ़-सफ़ाई के काम में कम नहीं खिझातीं उसे। घर में पियूष कौन कम बिखराहट करता था, जो इनकी कमी थी! मगर सोनू की देह में कोई हरकत नहीं हुई। उसे लगा था, बाहर खींचते ही वह उसकी पकड़ से छूट एकदम से दौड़ लेगा। कमला ने चीख़कर तविषा को पुकारा, “छोटी बीजीऽऽऽ!”

तविषा अचेत सोनू को देख घबड़ा गई। उसने सोनू की पीठ-पेट को सहलाया-पुचकारा। उसे कान खींचकर छेड़ा। कान खींचना सोनू को बड़ा नागवार गुज़रता था। अपनी रिस ज़ाहिर करते हुए वह बड़ी देर तक उनसे दूर-दूर बना रहता था। पुचकारने पर भी गोदी में न आता था मगर इस बार न सोनू ने अपनी रिस प्रकट की, न उससे दूर भागा। गोदी में उठाया तो उसकी रेशमी-सी देह हाथों में टूटी कोंपल-सी झूल गई।

उसकी समझ में नहीं आ रहा था, वह क्या करे? आस-पास जानवरों का कोई डॉक्टर है नहीं। बी-ब्लॉक की श्रेया ने अपने यहाँ कुत्ता पाल रखा है। इंटरकॉम से उसने श्रेया से बात करनी चाही। संयोग से श्रेया घर पर नहीं है। नौकर को जानवरों के डॉक्टरों के विषय में कोई जानकारी नहीं। वह नया ही उनके घर पर लगा है। अपनी समझ से उसने बच्चों के डॉक्टर को घर बुलाकर सोनू को दिखाया। डॉक्टर ने देखते ही कह दिया, “प्राण नहीं अब सोनू में। हो सकता है, इसे किसी ज़हरीले कीड़े ने काट लिया हो। बिल्ली तो नहीं आती घर में? नीचे गार्डन में घुमाने तो नहीं ले गए?”

“आंटी, आप अम्मा को जल्दी से जल्दी घर भेज दें। घंटे-भर में प्ले स्कूल से पियूष घर आ जाएगा। बहुत प्यार करता है वह सोनू-मोनू को। उसे समझाना-सम्भालना मुश्किल हो जाएगा। मोनू भी भौंचक-सा सोनू की निस्पंद पड़ी देह के इर्द-गिर्द मण्डरा रहा है।”

मांडवी दी घर पहुँची तो बैठक में काली बदली ठिठकी-सी तनी हुई थी।

सोफ़ों के बीच के ख़ाली पड़े फ़र्श पर सोनू निचेष्ट पड़ा हुआ था। झुकीं तो पाया, आँखें ठहरी हुई थीं उसकी, मानो नींद में आँखें खुली रह गई हों। पियूष उसी के निकट गुमसुम बैठा हुआ था। मोनू-सोनू की परिक्रमा-सा करता कभी दाएँ ठिठक उसे ग़ौर से ताकने लगता, कभी बाएँ से। कभी मुँह उठाकर पियूष की ओर देखता, उससे पूछने की मुद्रा में—भैया, ये सोनू उठकर हमारे साथ खेलता क्यों नहीं? पियूष की स्तब्धता तोड़ना उन्हें ज़रूरी लगा। नन्ही-सी ज़िन्दगी में वह मौत से पहली बार मिल रहा है। मौत उसकी समझ में नहीं आ रही है। ऐसा कभी हुआ नहीं कि उन्होंने घर की घंटी बजायी हो और तीनों लपककर दरवाज़ा खोलने न दौड़े हों। खोल तो पियूष ही पाता था, मगर मुँह दरवाज़े की ओर उठाए वे दोनों भी पियूष के नन्हे हाथों में अपने अगले पंजे लगा देते हों जैसे।

पियूष का सिर उन्होंने अपनी छाती से लगा लिया। पियूष रोने लगा है, “दादी, दादी! ये सोनू को क्या हो गया? दादी, सोनू बीमार है तो डॉक्टर को बुलाकर दिखाओ न, दादी! अम्मी गंदी हैं न! बोलती हैं—सोनू मर गया…”

वह अपनी उमड़ी चली आ रही आँखों को भीतर-ही-भीतर घुटकते हुए, रुँधे स्वर को साधती हुई उसे समझाने लगती हैं, “रोते नहीं, पियूष। सोनू को दुख होगा। सोनू तुम्हें हमेशा हँसते देखना चाहता था न! इसलिए तो तुम्हारे साथ ख़ूब धमा-चौकड़ी मचाता था। उसके पीछे तुम नीचे जाकर अपने हमजोलियों के संग खेलना भी भूल जाते थे।”

मोनू उनकी गोदी में मुँह सटाए उनके चेहरे को देख रहा है, बिटर-बिटर दृष्टि, आँसुओं से भरी हुई। जानवर भी रोते हैं! पहली बार उन्होंने किसी जानवर को रोते हुए देखा है। बचपन में गाँव की काली चित्तेवाली गाय याद है। गाय की आँखों की कीच-भर याद है। अम्मा बताती थीं, ‘बछड़ा जब नहीं रहा था चितकबरी का, अजीब तरीक़े से रम्भा-रम्भाकर रोती थी। कलेजा मुँह को आ जाता था।’

मोनू को हथेली में हल्के हाथों से दबोचकर उन्होंने उसे सीने से सटा लिया। हिचकियाँ भर रहा था मोनू? नहीं, ये उनकी अपनी हैं। उनमें शायद पियूष की भी शामिल हैं। मोनू के आँसू उन तक अपने उमड़ने की ख़बर नहीं पहुँचाना चाहते! आदमी की जात यहीं अलग है।

काली बदली उनके चेहरों पर उतर आयी है।

अणिमा जोशी के मोबाइल से उन्होंने बेटे शैलेश को दफ़्तर में ख़बर कर देना उचित समझा था। न जाने परेशान तविषा ने शैलेश को फ़ोन किया हो, न किया हो।

शैलेश ने कहा था, “ऐसा करें, अम्मा, घर पहुँच ही रही हैं आप। नीचे सोसाइटी में चौकीदार को कह दें। ढाई-तीन से पहले जमादारों का काम निपटता नहीं। एक को ऊपर भेज दे और सोनू को उठवाकर समाचार अपार्टमेंट्स से लगे नाले में फिंकवा दे। कुत्ते-बिल्ली सफ़ाचट कर जाएँगे। गरमी में ज़्यादा देर घर में रखने से बदबू आने लगेगी। पियूष वैसे भी जल्दी बीमार पड़ जाता है। सावधानी बरतना ज़रूरी है, अम्मा।

“और अम्मा, बेहतर है, यह काम पियूष के प्ले स्कूल से लौटने से पहले ही हो जाए। उसके कोमल मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ेगा। बहुत सवाल करता है पियूष। जवाब देते नहीं बन पड़ेगा।”

उन्होंने शैलेश से स्पष्ट कह दिया था—छुट्टी लेकर वह फ़ौरन घर पहुँचे। उनके घर पहुँचने तक पियूष घर पहुँच चुका होगा। अपनी घड़ी पर निगाह डाल ले वह। नाले में वह सोनू को हरगिज़ नहीं फिंकवा सकतीं। पियूष सोनू को बहुत प्यार करता है। स्थिति से भागने की बजाय उसका सामना करना ही बेहतर है। सोनू को घर में न पाकर उसके अबोध मन के सवालों से पूरे घर को टकराना होगा, उसे सम्भालना कठिन होगा। जमादार को घर पहुँचते ही वे ख़बर कर देंगी। उनकी इच्छा है, घर के बच्चे की तरह सोनू का अंतिम संस्कार किया जाए। आस-पास ही कहीं जमादार से मिट्टी खुदवाकर उसे ज़मीन में गाड़ दिया जाए।

बेटे शैलेश को उनकी बात सुसंगत लगी हो या न लगी हो पर उसे मालूम है कि अम्मा से बहस एक सीमा तक ही खिंच सकती है। तब तो और नहीं, जब वे किसी बात को लेकर निर्णय ले चुकी होती हैं।

“पहुँचता हूँ।” शैलेश ने कहा था।

उन्होंने पियूष को समझा दिया था, “तुम्हारे सोनू को ज़मीन में गाड़ने ले जा रहे हैं, तुम्हारे पापा। नन्हें बच्चों की मौत होती है तो उन्हें ज़मीन में गाड़ दिया जाता है, ताकि बच्चा कहीं और जन्म ले सके—न, न, ज़मीन से बच्चा पेड़ की भाँति नहीं उगता पगले! वहाँ से वह किसी माँ के पेट में पहुँच जाता है। नौ महीने उस माँ के पेट में रहता है और फिर दूसरे बच्चे के रूप में जन्म ले लेता है। तुम मोनू के पास ही रहो। तुम्हें मोनू को सम्भालना है। पापा के साथ जाने की ज़िद न करो।”

“मेरा जन्म भी ऐसे ही हुआ?”

“शायद!”

“दादी, पर सोनू मर क्यों गया?”

सवाल के जवाब देने ही होंगे, “उसके दिल में गहरा दुख था, पियूष!”

“दादी, उसके दिल में दुख क्यों था?”

“उसे अपने माँ-बाप से अलग जो कर दिया गया।”

“किसने किया, दादी?”

“उस दुकानदार ने, जिससे हम उसे ख़रीदकर लाए थे। दुकानदार पशु-पक्षियों को बेचता है न! उसने कुछ लोगों से कह रखा है, वे जंगल में घात लगाकर घूमें। मौक़ा मिलते ही नन्हे पशु-पक्षियों को अपने जाल में फँसा लें। उन्हें शहर लाकर उसे बेच दें। तुम्हीं बताओ, माँ-बाप से दूर होकर बच्चे दुखी होते हैं कि नहीं?”

“होते हैं, दादी। मम्मी, चार दिन के लिए मुझे छोड़कर नानू के पास मुम्बई गई थीं तो मुझे भी बहुत दुख हुआ था।”

“दादी, दादी! दुख से मर जाते हैं?”

तर्क बग़लें झाँक रहे हैं…

“कभी-कभी पियूष!”

“मोनू भी मर सकता है?”

“मर सकता है।”

कैसे हठ पकड़ लिया पियूष ने। घर में वह भी ख़रगोश पालेगा, तोते का पिंजरा लगाएगा।

तविषा और शैलेश के संग महरौली, शैलेश के मित्र के बच्चे के जन्मदिन पर गया था पियूष! उन लोगों ने बंगले के पिछले हिस्से में पशु-पक्षियों का छोटा-सा सुंदर बग़ीचा बना रखा था। मँझोले नीम के पेड़ की डाल पर तोते का पिंजरा लटका रखा था। जालीदार बड़े से बाँकड़े में उन्होंने ख़रगोश पाल रखे थे। एक अन्य जालीदार बाँकड़े में क़िस्म-क़िस्म की रंग-बिरंगी फुदकती चिड़िया और नन्हें से पोखर में कछुए। पियूष को ख़रगोश और तोता इतने भाए कि घर आकर उसने ज़िद पकड़ ली—उसे भी घर में ख़रगोश और तोता चाहिए। तविषा और शैलेश ने बहुत समझाया—फ़्लैट में पशु-पक्षी पालना कठिन है। कहाँ रखेंगे उन्हें?”

तविशा ने उसकी बात काट उसे बहलाना चाहा, “पूरे दिन ख़रगोश बाँकड़े में नहीं बंद रह सकते। उन्हें कुछ समय के लिए खुला छोड़ना होगा। छोटे-से घर में वे भागा-दौड़ी करेंगे। सुसु-छिछि करेंगे। उनकी टट्टी-पेशाब कौन साफ़ करेगा?”

“दादी करेंगी।”

“दादी पढ़ाने कॉलेज जाएँगी तो उनके पीछे कौन करेगा?”

“स्कूल से आकर मैं कर लूँगा।”

सारा घर हँस पड़ा।

सब लोग तब और चकित रह गए, जब पियूष ने दादी को पटाने की कोशिश की कि दादी उसके जन्मदिन पर कोई-न-कोई उपहार देती ही हैं। क्यों न इस बार वे उसे ख़रगोश और तोता लाकर दे दें। दादी हँसी। जन्मदिन तो पियूष का आकर चला गया। अब जब आएगा, तब देखा जाएगा लेकिन पियूष पर किसी के तर्क का कोई असर नहीं हुआ। उसका हठ न टला तो न टला। निरुत्तर दादी उसे लेकर लाजपत नगर चिड़ियों की दुकान पर गईं। तोता और ख़रगोश में से उन्होंने पियूष को कोई एक चीज़ चुनने के लिए कहा। पियूष ने ख़रगोश का जोड़ा पसंद किया। तत्काल उनका नामकरण भी कर दिया—सोनू-मोनू! सोनू-मोनू के साथ उनका घर भी ख़रीदा गया—जालीदार बड़ा-सा बाँकड़ा। उस साँझ सोसाइटी के उसके सारे हमजोली बड़ी देर तक बालकनी में डटे ख़रगोश को देखते-सराहते रहे और पियूष के भाग्य से ईर्ष्या करते रहे।

दूसरे रोज़ भी मोनू सामान्य नहीं हो पाया। पियूष को भी दादी ने प्ले स्कूल भेजना मुनासिब न समझा। पियूष घर में रहेगा तो दोनों एक-दूसरे को देख ढाँढ़स महसूस करेंगे। उन्होंने स्वयं भी कॉलेज जाना स्थगित कर दिया। सुबह मोनू ने दूध के कटोरे को छुआ तक नहीं। बग़ल में रखे सोनू के ख़ाली दूध के कटोरे को रह-रहकर सूँघता रहा। बाँकड़े का दरवाज़ा खोलते ही वह बैठक में ठीक उसी स्थान पर आकर फ़र्श सूँघता हुआ मण्डराने लगा, जिस स्थान पर उसने सोनू को निस्पंद पड़ा हुआ देखा था। उन्हें मोनू की चिंता होने लगी। पियूष ने तो फिर भी दादी के मनाने पर कुछ खा-पी लिया।

तविषा अपराध-बोध से भरी हुई थी। मांडवी दी से उसने अपना संशय बाँटा। चावल की टंकी में घुन हो रहे थे। उस सुबह उसने घुन मारने के लिए डाबर की पारे की गोलियों की शीशी खोली थी चावलों में डालने के लिए। शीशी का ढक्कन मरोड़कर जैसे ही उसने ढक्कन खोलना चाहा, कुछ गोलियाँ छिटककर दूर जा गिरीं। गोलियाँ बटोर उसने टंकी में डाल दी थीं। फिर भी उसे शक है कि एकाध गोली ओने-कोने में छूट गई होगी और…

“दादी!”

“हाँ, पियूष!”

“दादी, मोनू मेरे साथ खेलता क्यों नहीं?”

“बेटा, सोनू जो उससे बिछुड़ गया है, वह दुखी है। दोनों को एक-दूसरे के साथ रहने की आदत पड़ गई थी न!”

“मुझे भी तो सोनू के जाने का दुख है, दादी—क्या हम दोनों भी मर जाएँगे?”

मांडवी दी ने तड़पकर पियूष के मुँह पर हाथ रख दिया। डाँटा, “ऐसे अपशकुनी बोल क्यों बोल रहा है?”

पियूष ने प्रतिवाद किया, “आपने ही तो कहा था, दादी। सोनू दुख से मर गया।”

“कहा था। उसे अपने माँ-बाप से बिछुड़ने का दुख था। जंगल उसका घर है। जंगल में उसके माँ-बाप हैं। तुम तो अपने माँ-बाप के पास हो।”

“दादी, हम मोनू को उसके माँ-बाप से अलग रखेंगे तो वह भी मर जाएगा दुख से?”

मांडवी दी निरुत्तर हो आयीं।

“दादी, हम मोनू को जंगल में ले जाकर छोड़ दें तो वह अपने मम्मी-पापा के पास पहुँच जाएगा। फिर तो वह मरेगा नहीं न?”

“नहीं मरेगा, पर तू मोनू के बिना रह लेगा न?” मांडवी दी का कंठ भर आया।

“रह लूँगा।”

“ठीक है। शैलेश से कहूँगी कि वह रात को गाड़ी निकाले और हमें जंगल ले चले। रात में ही ख़रगोश दिखायी पड़ते हैं। शायद मोनू के माँ-बाप भी हमें दिखायी पड़ जाएँगे।”

“दादी!”

“बोल, पियू!”

“दादी, मैंने आपसे कहा था न, मुझे तोता भी चाहिए?”

“कहा था।”

“अब मुझे तोता नहीं चाहिए, दादी।”

मांडवी दी ने पियू को सीने से भींच लिया और दनादन उसका मुँह चूमने लगीं।

अलका पाठक की कहानी 'तितली और बाबू'

Book by Chitra Mudgal:

चित्रा मुद्गल
चित्रा मुद्गल हिन्दी की वरिष्ठ कथालेखिका हैं। अब तक नौ कहानी संकलन, तीन उपन्यास, एक लेख-संकलन, एक उपन्यास, एक लेख-संकलन, एक बाल उपन्यास, चार बालकथा-संग्रह, छह संपादित पुस्तकें। गुजराती में दो अनूदित पुस्तकें प्रकाशित। अंग्रेज़ी में 'हाइना ऐंड अदर शार्ट स्टोरीज' बहुप्रशंसित। दिल्ली दूरदर्शन के लिए फ़िल्म 'वारिस' का निर्माण। 'पोस्ट बॉक्स नं. 203-नाला सोपारा' के लिए हिन्दी भाषा का साहित्य अकादमी 2018 पुरस्कार!