मैं उस किसान को जानता हूँ
जिसके खेत में इतनी कपास होती है
कि रेशे से जिसके, फांसी का फंदा बनता है।
मैं उस लुहार को जानता हूँ
जो लोहे पर हथौड़े चलाकर उकता गया है
और अब निहाई पर अपनी किस्मत पीटता है।
मैं उस बच्चे को जानता हूँ
जिसकी आँखों के गीलेपन का फ़ायदा उठाकर
बेमुरव्वत ताक़तों ने उनमें बंदूकें उगा दी हैं।
मैं उस सिपाही को जानता हूँ
जिसके सीने से इंकलाब जैसे शब्द मिटा दिये गये हैं
और थोप दिये गये हैं मज़हब के ग़लत मायने।
मैं उस औरत को जानता हूँ
जिसकी अस्मत पे उंगलियाँ उठ जाती हैं
वो जब भी अपना हक़ लेने घर से निकलती है।
मैं उस सुराही को जानता हूँ
जिसकी गर्दन में गंगा का पानी है
मगर पैंदों पर तेज़ाब की तलछट जमी है।
मैं उस मजदूर को जानता हूँ
जो दिन भर जीने की क़वायद में काम करता है
और हर रात पीकर ख़ुद को मार लेता है।
मैं उस मोची को जानता हूँ
जिसने ताउम्र सिले हैं हज़ारों जूते-चप्पल
मगर अपनी फटी बिवाइयाँ सीने में नाकाम रहा है।
मैं उस बड़े आदमी को जानता हूँ
जो भूख मिटाने के बदले गोश्त और ख़ून माँगता है
ऐसे हताश आदमी को भी पहचानता हूँ मैं
जिसे रोटी के बदले ईमान बेचना पड़ता है।
मैं उस पण्डित को जानता हूँ
जिसने इस धरती पर दो बार जन्म लिया
और बीसियों बार क़त्ल कर दिया गया।
मैं उस मौलवी को जानता हूँ
जिसे पता था इबादत और तक़्वा का सही अर्थ
मगर मुँह खोलते ही वो काफ़िर करार दे दिया गया।
मैं ऐसे गांव को जानता हूँ
जिसकी सड़कों की अंतड़ियाँ निकाल ली गयी हैं
ऐसे शहर से भी वाक़िफ़ हूँ मैं
जिसकी आस्तीन में बारूद की फ़सल होती है।
मैं ऐसे तलबगारों से भी हुआ हूँ रूबरू
गालियाँ जिनके लिए अभिव्यक्ति का अधिकार है
मैं ऐसे सरफ़रोश को जानता हूँ
जिसकी बहादुरी का ईनाम ग़द्दारी का तमगा लगाकर दिया गया।
मगर…
मैं ऐसे भारत को भी जानता हूँ
जो सत्तर साल भार ढोकर भी बूढ़ा नहीं हुआ
मैं ऐसे भारतवासी को भी जानता हूँ
जो चिथड़ों में पड़ा है मगर रूआंसा नहीं हुआ।
इसलिए…
मैं धरती की मटमैली देह पर
पानी के नीले निशानों की वकालत करता हूँ
मैं इस देश के हर बाशिन्दे के पैरों की मिट्टी
और बदन के पसीने की वकालत करता हूँ।
जो झूठे आश्वासनों के बाद चैन से सोता है
मैं ऐसे नेता की धोती खोलने की वकालत करता हूँ
जो जनता का दर्द लाल फीतों में बाँध के नहीं रखता
मैं उस अफ़सर की हुकूमत की वकालत करता हूँ।
मैं उन सब ज़िन्दगियों की ख़िलाफ़त करता हूँ
जो बेवजह भीड़ का हिस्सा हो जाती हैं
मैं उन तमाम मौतों से मुहब्बत करता हूँ
जो खाद बनकर खेतों की शान हो जाती हैं।
मैं ऐसी बंदूक की तलाश में हूँ
जिसकी दुनाली का मुँह ख़ौफ़ की तरफ़ हो
मैं ऐसी बारूद का हिमायती हूँ
जो बदन पर छिटकते ही भस्म बन जाती हो।
मैं ऐसे दिलों की तलाश में निकला हूँ
जो मिट्टी की सुगन्ध से बहलते हैं
मैं ऐसे होंठों को चूमने की तमन्ना करता हूँ
जो मुल्कपरस्ती के गीतों पर ठुमकते हैं।
मैं ऐसी आँखों की तलहटी में सोना चाहता हूँ
जो मुहब्बत में सरहद के उस पार भी निकल जाती हैं
मैं ऐसी हथेलियों को कांधों पर रखना चाहता हूँ
जिनकी थाप से इंसाफ की शहनाई के सुर निकलते हैं।
मैं उन सीखचों का हमेशा अहसानमंद रहूंगा
जिन पर मेरे विचारों को भूनकर पकाया गया
मैं उन भट्टियों का भी कर्ज़दार रहूंगा
जिनमें मेरे भीतर के कुरा को पिघला दिया है।
मुझे ऐसे अख़बार में अपनी तस्वीर देखनी है
जिसकी काली छपाई में सच सहमा हुआ न हो
मुझे ऐसे चैनल पर सुननी है मेरी मौत की ख़बर
जिसकी कड़वाहट पर रिश्वतों की मिठास न हो।
मैं भारत के केसरिया लिबास में
दंगों की आग नहीं, बदलाव की भंगवासा चाहता हूँ
मुझे हर हाथ की ताक़त बनना है
न कि टूटे हुये जिस्मों पर झूठमूठ का दिलासा चाहता हूँ।
मैं हर बच्चे, बूढ़े और जवान के हाथ की
वो एक ख़ास क़लम बन जाना चाहता हूँ
जो बदगुमान सरकार की गर्दन पर चलते ही
किसी चाकू या ख़ंज़र की नोंक बन जाती है।
जब बाहर की ख़ामोशी और भीतर का भूकम्प
मिलकर एक नयी इंसानी क़ौम को जन्म देंगे
तब सफ़ेदपोश कालिख़ पोतकर
क़ानून के कटघरे में लाये जायेंगे।
मैं सचमुच का भारत बन जाना चाहता हूँ
भारत जिसकी आरजू आज़ाद ने की होगी
वही भारत जो भगतसिंह का महबूब है
वही भारत जो तेरा-मेरा गुरूर है, रौब है, वजूद है।