‘Main Sharminda Hoon’, a poem by Rupam Mishra

तुम नहीं समझ पाओगे!
पराई चोटों को मोबाइल स्क्रीन पर देखकर
तड़पकर कलेजा मुँह को आ जाना,
बैचैन होकर रात भर जागना,
तुम नहीं समझ पाओगे!

कितने छोटे हो जाते हो तुम जब कहते हो कि
बस कुछ लोग हीरो बनने की कोशिश कर रहे हैं,
जबकि सच तो है कि कुछ लोग कुछ तो बन रहे हैं
जबकि तुम अपने अंदर का इंसान भी नहीं बचा पा रहे हो

हाँ! मैं हर उस पंथ के साथ हूँ
जो मानवता के लिए खड़ा होता है,
तुम कहते हो कि विषैली विचारधारा ने
मुझे भटका दिया है,
मुझे नहीं पचती इतनी सुस्वाद विचारधारा
जो मनुष्यों का ख़ून पीती है

जब क्रूरता करने वाले हृदय न्याय की बात करते हैं
तब मानवता कच्ची मछली की छटपटाती है

मैं जानती हूँ अभी तुम्हारे अंदर का मनुष्य एकदम से मरा नहीं होगा, साँसें ले रहा होगा
पर तुमने बांध लिया ख़ुद को एक ज़िद में
जो कि इतनी हावी है तुम पर कि तुम्हें समझने ही नहीं दे रही कि
विचारधारा स्वतंत्रता के लिए होती है, बंधन के लिए नहीं

मुझे देखना था वो पहर जब बच्चे चीख़ रहे थे
और तुम सहज रहे,
मुझे देखना था वो तुम्हारे हाथ जो
मनुष्यता के मुँह पर लगी कालिख से सने थे

ये ख़ून से लथपथ, पढ़ने वाले बच्चों की देह
भय और पीड़ा से तड़पती उनकी माँओं के चेहरे
मुझसे नहीं सहे जाते

मैं शर्मिंदा हूँ, कि जब अन्याय के लिए खड़े जीवित मनुष्य मारे जा रहे थे,
मैं अपनी देह में मरी हुई आत्मा को लेकर
अफ़सोस की औपचारिकता कर रही हूँ!

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