मैं
एक तीर था
जिसे सबने अपने तरकश में शामिल किया
किसी ने चलाया नहीं

मैं
एक फूल था
टूटने को बेताब
सबने मुझे देखा, मेरे रंगों की तारीफ़ की
और मैं दरख़्त पर ही सूख गया

एक किताब था मैं
जिसमें कविताएँ होनी थीं
पर कोई छाप गया था उसपर
गणित के तमाम सवाल

मैं दिन के आसमान का चाँद था
रात में मरता हुआ कोई सपना
‘पाश’ के ‘सबसे ख़तरनाक’ की तरह

मैं ‘शहरयार’ का वह ‘परेशान शहर’ था
जिसके सीने में अब न जलन थी
न ही आँखों में कोई तूफ़ान

मैं
हर वह चीज़ था
जो मैं नहीं था।

विशेष चंद्र 'नमन' की कविता 'नयी भाषा'

किताब सुझाव:

विशेष चंद्र ‘नमन’
विशेष चंद्र नमन दिल्ली विवि, श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज से गणित में स्नातक हैं। कॉलेज के दिनों में साहित्यिक रुचि खूब जागी, नया पढ़ने का मौका मिला, कॉलेज लाइब्रेरी ने और कॉलेज के मित्रों ने बखूबी साथ निभाया, और बीते कुछ वर्षों से वह अधिक सक्रीय रहे हैं। अपनी कविताओं के बारे में विशेष कहते हैं कि अब कॉलेज तो खत्म हो रहा है पर कविताएँ बची रह जाएँगी और कविताओं में कुछ कॉलेज भी बचा रह जायेगा। विशेष फिलहाल नई दिल्ली में रहते हैं।