मैं
एक तीर था
जिसे सबने अपने तरकश में शामिल किया
किसी ने चलाया नहीं
मैं
एक फूल था
टूटने को बेताब
सबने मुझे देखा, मेरे रंगों की तारीफ़ की
और मैं दरख़्त पर ही सूख गया
एक किताब था मैं
जिसमें कविताएँ होनी थीं
पर कोई छाप गया था उसपर
गणित के तमाम सवाल
मैं दिन के आसमान का चाँद था
रात में मरता हुआ कोई सपना
‘पाश’ के ‘सबसे ख़तरनाक’ की तरह
मैं ‘शहरयार’ का वह ‘परेशान शहर’ था
जिसके सीने में अब न जलन थी
न ही आँखों में कोई तूफ़ान
मैं
हर वह चीज़ था
जो मैं नहीं था।
विशेष चंद्र 'नमन' की कविता 'नयी भाषा'