किताब अंश: ‘मोहम्मद रफ़ी – स्वयं ईश्वर की आवाज़’
उस आवाज़ की तारीफ़ को चंद शब्दों में समेट पाना ज़रा मुश्किल है, जिसकी शख़्सियत का जादू युगों-युगों तक करोड़ों लोगों को मोहित करने वाला है। यह आवाज़ सामान्य परिवार से ताल्लुक़ रखने वाले रफ़ी साहब की है, जो अपनी लगन व निष्ठा से 40 वर्षों से भी अधिक फ़िल्म जगत में टिके रहे, जहाँ कुछ समय तक भी जगह बनाए रखना कठिन होता है। पर रफ़ी वहाँ एक ध्रुव तारे की तरह हमेशा झिलमिलाते रहे और अपने चाहने वालों के दिलों में एक मीठी याद की तरह आज भी समाए हुए हैं।
यूँ तो रफ़ी साहब को दुनिया से अलविदा कहे कई दशक हो चुके हैं, पर आज भी रेडियो स्टेशन व म्यूजिक चैनल पर उनका कोई न कोई गीत सुनने को अक्सर मिल ही जाता है। उनका यह करिश्माई अंदाज़ अपने जीवनकाल में तो बरक़रार रहा ही है, उनके न रहने पर भी, उनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है।
संगीतकार स्व. वसंत देसाई ने, जिनका एक लिफ़्ट दुर्घटना में आकस्मिक निधन हुआ था, एक बार रफ़ी के बारे में दिल को छू लेने वाली बात कही थी, कि—वह एक शापित गंधर्व थे, जो ग़लती से धरती पर आ गए थे। यह वही वसंत देसाई थे जिनके लिए भरत मिलाप (1965) का गीत मेरे प्रभु श्री राम कहाँ… रफ़ी ने करुणाभरी आवाज़ में पूरे जोश के साथ गाया था। ताज्जुब की बात यह है कि वसंत देसाई ने अपनी प्रतिष्ठित फ़िल्म गूँज उठी शहनाई (1959) में बिस्मिल्लाह ख़ान की शहनाई की धुनों के साथ रफ़ी की आवाज़ का ही सहारा लिया था, जिसमें राजेन्द्र कुमार ने अभिनय किया था।
साठ के दशक में रफ़ी की लोकप्रियता के बारे में भारत के सातवें मुख्य न्यायाधीश पी.बी. गजेंद्र गडकर (1964-66) ने एक बार मज़ाकिया अंदाज़ में कहा था कि हिन्दी फ़िल्म संगीत पर दो महमूदों ने राज किया था। ज़ाहिर है, एक—मोहम्मद रफ़ी, और दूसरे—तलत मेहमूद की ओर ही उनका इशारा था।
(रफ़ी के पहले तलत मेहमूद की पार्श्वगायकी ही तो ट्रैजिडी किंग दिलीप कुमार के होंठों पर फबती हुई, उन्हें बेशुमार शोहरत दिला चुकी थी।)
तो इस आवाज़ की वह कौन-सी ख़ासियत थी कि एक पूरी पीढ़ी की धड़कनें इस आवाज़ के साथ ही मानो धड़कती थीं! इस बात की व्याख्या दो तरह से की जा सकती है। वह एक रूढ़िवादी और देहाती पृष्ठभूमि से आए थे—जिसमें गायकी को पेशे की तरह अपना लेने की कोई सरलता नहीं थी—ऐसे में वह बस इस क्षेत्र में पूरे जोश-खरोश के साथ काम कर सकते थे, जैसे कि उनके पथ-प्रदर्शक नौशाद अली ने कैरियर की शुरुआत में किया था। सपनों की इस नगरी में दोनों ने अपनी कड़ी मेहनत और अपना पसीना बहाकर ही तो जगह बनायी थी, दोनों में अंतर बस यही था कि रफ़ी की जड़ें दिलख़ुश पंजाब में थीं और नौशाद आए थे लखनऊ की तहज़ीब से। लेकिन उनकी जोड़ी ने फ़िल्म संगीत में कमाल ही तो कर दिखाया।
रफ़ी की आवाज़ निश्चय ही एक दैवीय देन थी। उसमें गीली मिट्टी का लोच था; और जैसी चाहत हो, वह उसमें ढल सकती थी। शायद यही वजह है कि रफ़ी विभिन्न प्रकार के गीत—जंगली याहू से लेकर रूमानी गीत और भजनों से लेकर देशभक्ति के तराने, क़व्वाली हो या कोई नज़्म या फिर ग़ज़ल—बख़ूबी गा सकते थे। रफ़ी ने अपनी क्षमता का हमेशा पूर्ण समर्पण दिया! उनके भंडार में एक से एक नायाब चीज़ें जमा होती रहीं। वह लगातार नई और विविध प्रकार की ऊँचाइयाँ छूते रहे; और उनकी गायकी की चमक बढ़ती ही चली गई। उनकी आवाज़ में वह जोश और लचीलापन था, जो हर तरह के भाव को उभार सकती थी।
रफ़ी की आवाज़ को दुनिया भर में पसंद किए जाने का एक कारण यह भी था कि—चाहे वह किसी नायक के लिए गा रहे हों या कॉमेडियन के लिए या फिर किसी चरित्र अभिनेता के लिए ही—वह सब पर अच्छी लगती थी। उनकी आवाज़, एक पीढ़ी के नायकों की आवाज़ बन सकी थी—दर्द भरे गीत, जो उन्होंने दिलीप कुमार के लिए गाए या मस्ती भरे गीत देव आनंद के लिए या चार्ली चैपलिन की याद दिलाने वाले राज कपूर के लिए या फिर जुबली स्टार राजेन्द्र कुमार के लिए—वह उन सबकी स्वाभाविक आवाज़ से गाए हुए ही लगे! ‘जंगली’ शम्मी कपूर से लेकर, भारत भूषण, प्रदीप कुमार, जॉय मुखर्जी, बिस्वजीत, और उन सबको, जो फ़िल्मी परदे पर आए, उन्होंने अपनी आवाज़ दी।
उनकी आवाज़ का यह जादुई असर ही था कि जब भी कोई अभिनेता किसी फ़िल्म को साइन करता तो उसकी यही शर्त होती थी कि उसके लिए रफ़ी ही गाएँगे। रफ़ी ने कभी नहीं चाहा कि वे बस नामी-गिरामी या बड़े अभिनेताओं के लिए ही गाएँगे बल्कि उन्होंने तो अपनी आवाज़ किसी को भी देने में कोताही नहीं बरती। उनका विचार तो बस यही था कि गीत, गीत है, बस गीत है, उसके साथ भेदभाव कैसा! गीत गाने से पहले उन्होंने कभी ज़ोर देकर यह नहीं पूछा कि गीत किस अभिनेता के होंठों पर सजाया जाएगा, गर पूछा भी तो सिर्फ़ व्यक्तित्व और भूमिका के लिहाज़ से, ताकि वह अपनी आवाज़ को उसके अनुकूल कर लें। अपने को परदे पर रफ़ी की आवाज़ में गाते हुए देखकर स्वयं अभिनेता अचरज में पड़ जाते थे कि रफ़ी ने यह क्या करिश्मा कर दिखाया है कि यह लग ही नहीं रहा कि, अभिनेता ने नहीं, बल्कि किसी और ने उसे गाया है! इतना स्वाभाविक लगने लगता था, किसी अभिनेता पर गाया हुआ उनका गीत! पर यह कोई आसान बात तो थी नहीं। संगीतकार उनसे ऊँची, बुलंद आवाज़ की भी अपेक्षा करते थे; और शास्त्रीय गीतों को मधुरता से गाने की भी। नियमित सुबह के रियाज़ से उन्हें भरोसा रहता था कि यह सब वे सम्भाल लेंगे, जैसा भी गीत उन्हें मिलेगा, गा लेंगे। संगीतकार रफ़ी ने एक बार यह बताया था कि जब भी कोई संगीत-निर्देशक उनके पास कोई धुन लेकर आता था, और उसे बहुत ऊँची आवाज़ में गाने का आग्रह करता था, तो रफ़ी विनम्रता के साथ कहते थे, “ऐसा कीजिए, यह गाना आप ख़ुद ही गाइए और निर्माता के पैसे बचाइए।” लेकिन रफ़ी जब गाना शुरू करते थे, तो सबकी उम्मीदों पर खरा उतरते थे। शम्मी कपूर अक्सर इस बात पर चकित होते थे कि रफ़ी पहले से ही यह कैसे समझ लेते हैं कि उनके लिए, उन्हें किस अंदाज़ में गाना है। जब विस्मित शम्मी कपूर रफ़ी से यह कहते थे कि आपने गाने को ठीक वैसा ही कैसे गा दिया है, जैसा कि मैं उसे चाहता था, तो रफ़ी जानबूझकर आवाज़ को खुश्क बनाकर, इन्हें छेड़ने के लिए कहते थे, “मुझसे ऐसा गवाते हो कि पसीना निकल आता है।”
आवाज़ को बड़ी आसानी से उठाकर या चढ़ा लेने की जो क्षमता और कला, रफ़ी के पास थी, उस के तो सभी दीवाने थे। दिलीप कुमार को, रफ़ी की इस कला का लाभ सबसे अधिक मिला। कोई सागर दिल को बहलाता नहीं (दिल दिया दर्द लिया, 1966) में अगर वह (दिलीप कुमार) इतना ग़मगीन लगते थे तो वही दिलीप कुमार नैन लड़ जई हैं (गंगा जमुना, 1961) में कितना खिले रहे। यह रफ़ी की कला ही तो थी कि यह लगता ही नहीं था कि अभिनय करने वाला कोई और है, और गाने वाला कोई और। स्टाइल वाले शहरी देव आनंद ने एक बार साफ़तौर पर कहा था, कि किशोर कुमार भले ही परदे पर मेरी आवाज़ रहे हों, लेकिन वह तो रफ़ी ही थे, जो मेरे स्टाइल से मेरे लिए गीतों को गाते थे—चाहे वह, दिल का भँवर करे पुकार हो या फिर कुतुब मीनार का (तेरे घर के सामने, 1963) हो या फिर गहरी उदासी का दिन ढल जाए (गाइड, 1965) हो। देव आनंद-रफ़ी का यह सम्बन्ध उस दिन बड़ी गूँज के साथ हवा में तैरा, जिस दिन मुम्बई के सांताक्रूज होटल में देव आनंद की आत्मकथा रिलीज़ हुई थी; और रफ़ी के गीत ही पार्टी के दौरान बज रहे थे, उस पार्टी में, जिसमें नामी-गिरामी हस्तियाँ मौजूद थीं।
एक-दूसरे छोर पर जॉनी वॉकर (बदरुद्दीन जमालुद्दीन क़ाज़ी) भी हैं, जिनके व्यक्तित्व के साथ भला रफ़ी की आवाज़ का कोई मेल बैठता है! पर नहीं। जब उन्हीं जॉनी वॉकर के लिए रफ़ी ने गाया, सर जो तेरा चकराए तो वह गीत और वह आवाज़, जॉनी वॉकर की ही तो आवाज़ हो गई, और प्यासा (1957) में जब गुरुदत्त के लिए उन्होंने गीत गाए, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है और जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं तो वे गीत गुरुदत्त की भी एक अनोखी पहचान बन गए। बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती। याद करें जॉनी भाई के लिए ही रफ़ी ने यह गीत भी गाया, मेरा यार बना है दूल्हा और गुरुदत्त के लिए, चौदहवीं का चाँद (1960) में मिली ख़ाक में मुहब्बत जला दिल का आशियाना तो यही लगा न कि इससे बेहतर आवाज़ उन दोनों के लिए भला और क्या हो सकती थी! अचरज नहीं कि स्व. सचिन देव बर्मन; और यहाँ तक कि स्व. रवि (शर्मा) ने अपनी बेहतरीन फ़िल्मों में रफ़ी की आवाज़ का इस्तेमाल किया।
उदाहरण के तौर पर भारत भूषण जैसे नायक भी हैं, और इन्हें इस सिलसिले में याद किया ही जाना चाहिए—मायूस तो हूँ वादे से तेरे (बरसात की रात, 1960, संगीतः रोशन) और प्रदीप कुमार भी हैं, चाँद कितनी दूर था (अफ़साना, 1966, संगीत: चित्रगुप्त), फिर हैं, जॉय मुखर्जी, ओ मेरे शाह-ए खूबा (लव इन टोक्यो, 1966, संगीत: शंकर-जयकिशन) और न भूलें बिस्वजीत को बाहोश-ओ-हवास मैं दीवाना (नाइट इन लंदन, 1967, संगीत: लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल)। ये सभी गाने, इन नायकों के ऊपर ख़ूब जमे हैं।
इसके अलावा, चरित्र अभिनेता बलराज साहनी पर फ़िल्माया गया गीत भला करने वाले भलाई किए जा (घर संसार, 1958, संगीत: रवि) हो या मनमोहन कृष्ण पर फ़िल्माया गया गीत तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा (धूल का फूल, 1959, संगीत: एन. दत्ता) गीतों में भी तो रफ़ी की आवाज़ का जादू सिर चढ़कर बोलता है। के. आसिफ़ की 1960 की मुग़ल-ए-आज़म, जिसके संगीत-निर्देशक थे नौशाद, उसमें लता मंगेशकर की प्रमुखता वाले साउंडट्रैक में, लगभग भुला दिए गए अभिनेता एम. कुमार के लिए गाए गए गीत, ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद ऐ मुहब्बत ज़िंदाबाद की गूँज भी तो रफ़ी की ही पैदा की हुई थी। यही तो रफ़ी का कमाल था कि जो अभिनेता गुमनामी में चले गए थे, उन्हें भी उन्होंने अपनी आवाज़ से एक बार फिर सबके सामने लाकर खड़ा कर दिया।
रफ़ी की गायकी की ख़ासियत यह भी थी कि आवाज़ पर मेहनताने का कोई असर नहीं पड़ता था। फ़िल्म उद्योग के दाँव-पेंच, कभी रफ़ी को अपने वश में नहीं कर सके, न ही उसके अत्यधिक व्यावसायिक रूप ने रफ़ी को अपने रंग में रंगने में कोई सफलता पायी। उनमें उन्होंने अपना हृदय तो उँडेला ही, अपनी आत्मा भी उँडेल दी। वह इसकी परवाह भी नहीं करते थे कि गीत किसी नामी-गिरामी के लिए गाना है; या किसी अनजान से संगीत-निर्देशक के लिए। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को भारी सफलता तो पारसमणि (1963) में जाकर मिली थी, पर उन्हें शुरू से ही यह मालूम था कि अगर सफल होना है तो वह रफ़ी के सहयोग से ही सम्भव हो सकेगा। जब उन्हें अपने कैरियर का पहला गीत तेरे प्यार ने मुझे ग़म दिया (छैला बाबू, 1967) रिकॉर्ड कराना था तो वह बड़े संकोच के साथ रफ़ी के पास गए थे। पर सुबी राज पर फ़िल्माए जाने वाले इस गीत के लिए रफ़ी ने यही वचन दिया कि इसे गाने में वह कोई कसर नहीं छोड़ेगे। वे इस गीत को इतने ऊँचे सुरों तक ले गए कि लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल हैरान हो गए। वह इस बात से भी कुछ सहमे हुए थे कि रफ़ी की फ़ीस के लिए उनके पास पर्याप्त धन नहीं था। कुछ सकुचाते हुए जब रफ़ी को उन्होंने एक लिफ़ाफ़े में 500 रुपए रखकर उन्हें पकड़ाए; और माफ़ी माँगते हुए बोले, “रफ़ी साहब, हमारे पास आपको देने के लिए बस यही है”, तब अपने स्वभाव के अनुसार मुस्कराते हुए रफ़ी ने यही कहा, “आपने बहुत अच्छी धुन बनायी है। ये पैसे मैं आपको बतौर हौसला बढ़ाने के लिए दे रहा हूँ। बस ऐसी ही धुनें बनाते रहिए।” बाद में प्यारेलाल (शर्मा) बताते थे कि यह सुनकर हमारे सिर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया।
फिर एक दिन वह भी आया, जब लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और रफ़ी की तिकड़ी ने फ़िल्म संगीत के इतिहास में एक विशेष अध्याय की रचना ही कर डाली।
रफ़ी की उदारता और छोटे-मोटे संगीत-निर्देशकों तथा फ़िल्म उद्योग में पाँव जमाना चाहने वालों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहने की बात तो रफ़ी के साथ जुड़ी हुई है ही। वह स्वयं कठिन संघर्ष कर चुके थे; और जानते थे कि संघर्ष के मायने क्या हैं, इसलिए अगर कोई गीत उन्हें अच्छा लगता था तो यह अपने-आप में काफ़ी था। फ़ीस मिले या न मिले, अच्छा लगने पर वह गाते ज़रूर थे। बस एक रुपए की प्रतीक-राशि में उन्होंने निसार बज़्मी के लिए चंदा का दिल टूट गया है रोने लगे हैं सितारे गीत गाया था। और जब चंगेज़ ख़ान (1957) में प्रेमनाथ पर फ़िल्माया जाने वाला गीत, मुहब्बत ज़िंदा रहती है, मुहब्बत मर नहीं सकती, उन्होंने गाया और संगीत-निर्देशक हंसराज बहल ने उनसे पूछा कि इसके लिए आप क्या फ़ीस लेंगे? तो रफ़ी ने उनसे कहा, “छोड़िए भी, इस गीत की धुन सोने में तुलने लायक़ है। यह गीत गाना ही मेरी सबसे बड़ी रक़म है।” इसलिए रफ़ी को चाहने वालों की तादाद बढ़ती ही गई; और कई ऐसे संगीतकार, जो संघर्ष के दौर से गुज़र रहे थे, रफ़ी का दरवाज़ा खटखटाने की हिम्मत जुटा लेते थे, वे जानते थे कि रफ़ी जब उनके लिए भी गाएँगे तो गाने में कोई कोताही नहीं बरतेंगे, उनकी बनायी धुनों को अपनी खरी आवाज़ ही देंगे। यही नहीं, रफ़ी ने यह नियम भी बनाया था कि वह किसी को रिकॉर्डिंग के लिए दी हुई डेट, कैंसिल नहीं करेंगे। अपना वायदा निभाएँगे। वह रिहर्सल को भी समय पर करते थे और रिकॉर्डिंग भी। कहते हैं, एक बार वह सोनिक-ओमी के तय समय से 45 मिनट पहले पहुँच गए, पर घंटी नहीं बजायी और घर के सामने टहलते रहे। रफ़ी ने यह सोचा कि समय से पहले पहुँच जाने पर उन्हें परेशानी न हो। बाद में, यह जानकर सबको हैरानी हुई। हालाँकि एक बार ओ.पी. नैयर के लिए एक गीत रिकॉर्ड करने के लिए देर से पहुँचे तो ओ.पी. नैयर ने उन्हें रिकॉर्डिंग रूम के बाहर कर दिया था क्योंकि वह स्वयं समय के सख़्त पाबंद थे। पर कुछ ही समय बाद उन्हें एहसास हुआ कि रफ़ी की जगह महेन्द्र कपूर को लेकर उन्होंने बहुत बड़ी भूल कर डाली है, भले ही वे गाने हिट ज़रूर हुए हों। इसके बाद रफ़ी के साथ ओ.पी. नैयर की बात बननी ही थी, बनी; और दोनों फिर गले मिले, रफ़ी, ओ.पी. के कान में यह गाते हुए कि यूँ तो हमने लाख संगीतकार देखे हैं, तुम-सा नहीं देखा। ओ.पी. बात को बिना तोड़े-मरोड़े कहने के आदी थे, और उन्होंने सीधे-सच्चे शब्दों में यह बात मानी कि रफ़ी को रिकॉर्डिंग रूम से बाहर कर देना उनकी बहुत बड़ी भूल थी। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे फ़रिश्ते से मैं कैसे दूर रह सकता था? और रफ़ी को गले लगाकर उन्हें चैन मिला, अंत भला तो सब भला।
गायक रफ़ी को लेकर एक ग़लतफ़हमी यह फैली हुई है कि वह मानो, ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर रिहर्सल्स पर देते थे। हाँ, वह चाहते थे कि जितनी भी रिहर्सल्स कर सकें, उतना ही अच्छा; क्योंकि वह गाने में कोई भी कमी रहने नहीं देना चाहते थे। यह उन्होंने अपने मार्गदर्शक नौशाद अली से ही तो सीखा था।
नौशाद साहब ने याद किया है:
हब्बा ख़ातून फ़िल्म के गीत, जिस रात के ख़्वाब आए की रिकॉर्डिंग के दौरान, रफ़ी ने कई बार ज़िद की कि उसे दोबारा से किया जाए। उनके बीच टेक एक ऐसा था, जो मुझे बिलकुल ठीक लगा, लेकिन रफ़ी मनुहार करते रहे कि कुछ और कर लिए जाएँ। कई रिटेक होने के बाद, रफ़ी को लगा कि जिस टेक पर मैं (नौशाद) टिका था, वह ठीक ही था। सो, उन्होंने उसे ही फ़ाइनल करने को कहा। वह ऐसे ही थे। वह इतना अभिभूत थे कि उनकी आँखों में आँसू आ गए, और बोले, “नौशाद साहब, आजकल ऐसे गीत कहाँ बनते हैं! मैं इसके पैसे नहीं लूँगा।”
उस दौर में जब फ़िल्म-संगीत में बस हल्ला-गुल्ला वाला दौर शुरू हो रहा था, रफ़ी के लिए ऐसे गीत गाने का आनंद, अपने-आप में एक पुरस्कार से कम नहीं था। याद कीजिए, यह वही रफ़ी थे, जिन्होंने किसी दुखी क्षण में कहा था कि आजकल लोग कुत्ते, बिल्ली जैसा गवाते हैं। अपने बाद के वर्षों में, उनके बारे में ऐसी बात फैलायी गई कि रफ़ी गाने में अब कई रिटेक कराते हैं, क्योंकि उनको अपनी आवाज़ पर पहले जैसा भरोसा नहीं रहा। यह बात बिलकुल झूठ थी। रफ़ी तो रिटेक के लिए इसरार इस ख़ातिर करते थे कि गाने में ज़रा-सी भी त्रुटि न रह जाए।
रफ़ी का यह विश्वास था कि हर संगीतकार उनका गुरु था। शब्दों पर पूर्ण अधिकार होने के बावजूद वह अपने को संगीतकार से ऊपर कभी नहीं रखते थे। संगीतकार का कहा हुआ, उनके लिए सबकुछ होता था; और वह उसी तरह गाते थे जैसा कि सामने वाला चाहता था। यहाँ तक कि अगर कोई नया संगीतकार भी गीत के शब्द उनके सामने रखकर कहता था कि मैं चाहता हूँ कि आप बता दें कि इसे किस तरह गाएँगे तो रफ़ी विनम्रतापूर्वक कहते थे, “नहीं, वह आपका क्षेत्र है, मेरा काम तो, जैसा आप कहेंगे, वैसे गाना है, क्योंकि आप मेरे गुरु हो; और मैं आपका शिष्य हूँ।” संगीतकार उषा खन्ना, जिनकी ख्याति नैयर शैली में दिल देके देखो (1962) फ़िल्म से हुई थी, ने एक गीत रफ़ी के साथ रिकॉर्ड किया था; और रफ़ी ने उसमें जान डाल दी थी। यह गीत हिट हो गया था। वर्षों बाद, उषा ने रफ़ी को उस गीत की याद दिलायी और कहा कि मैं गाने के कुछ सुर अलग तरह के चाहती थी, तो रफ़ी ने बेबाक़ी से कहा, “उषा, आप मेरी गुरु थीं, आपने बताया क्यों नहीं था।” उषा ने स्वीकार किया कि मैं तो आपकी आवाज़ और शख़्सियत से इतना प्रभावित थी कि कुछ कहने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई।
हाँ, अपने संगीत-निर्देशकों के कहे अनुसार रफ़ी जब गाते थे, तो गीत के भाव को पूरी तरह उतार देते थे, सुनने वाला पूरी तरह उसी भाव में डूब जाता था। अगर वह संस्कृत के किसी श्लोक से शुरू होने वाला कोई भजन गाते थे, जैसे कि जय रघुनंदन जय सियाराम (घराना, 1961, संगीत: रवि) तो वह आपको भक्तिभाव में ला देते थे। और जब वह पूरे दम से देशभक्ति पूर्ण की गीत गाते थे जैसे कि जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा, वो भारत देश है मेरा (सिकंदर-ए-आज़म, 1965, संगीत: हंसराज बहल) तो वह आपको देशभक्त बना देते थे। और जब कोई रोमांटिक गीत, जैसे कि तेरे-मेरे सपने अब एक रंग हैं (गाइड, 1965, संगीत: एस.डी. बर्मन) गाते थे तो बिलकुल वास्तविकता का एहसास करा देते थे। और जब वह मेरे दिलबर मुझ पर ख़फ़ा न हो, (धर्मपुत्र, 1961, संगीत: एन. दत्ता) गाते थे, तो उनका मुशायराना अंदाज़ भी ख़ूब जमता था। जब रफ़ी ने गाया, दुनिया ना भाए मोहे अब तो बुला ले (बसंत बहार, 1956, संगीत: शंकर-जयकिशन) तो लोगों के दिलों में दर्द भर गया। और जब उन्होंने गीत, मैं टूटी हुई एक नैया हूँ (आदमी, 1968, संगीत: नौशाद) को अपनी आवाज़ दी तो भला किसकी आँखों में आँसू नहीं आ गए; और जब गाया, जंगल में मोर नाचा किसी ने ना देखा (मधुमती, 1958, संगीत: सलिल चौधरी) तो एक मुस्कान सबके होंठों पर भी बिखर गई। कोई अनुभूति, कोई भाव ऐसा नहीं है, जिसे वह अपनी आवाज़ की गहराई से छू और पकड़ नहीं लेते थे!
जनप्रिय लेखक गुलशन नंदा ने एक बार कहा था कि रफ़ी; और केवल रफ़ी को, यह कला आती है कि वह शब्दों की गूँज से आपको ठिठका दें, पकड़ लें। उन्होंने कहा था, “वो जब मोहब्बत कहते थे तो वाक़ई उस लफ़्ज़ को एक छलकता हुआ पैमाना बना देते थे, वो जब कहते दिल तो दिल में एक चुभन-सी उठ जाती थी।”
गुलशन नंदा यहीं नहीं रुके, यह भी कहा, “अगर किसी हिंसा पर उतारू भीड़ को शांत करना हो तो रफ़ी साहब की आवाज़ ही वह कर पाएगी।” लेकिन 1980 में उनकी आवाज़ हमेशा के लिए शांत हो गई।
'कला कैनवास पर विवादित स्ट्रोक - हुसेन'