कोरोना के बारे में जानती थी दादी
मेरी बूढ़ी हो चली दादी को
हो गयी थी सत्तर वर्ष पहले ही
कोरोना वायरस के आने की ख़बर
वो कह रही थी बबुआ हम तो बचपन से ही
किसी से न मिले रहे
घूँघट रहा इसलिए मास्क की ज़रूरत ही न पड़ी
घर में ही रहना होता था
और हाथ मिलाना तो वैसे भी बाबूजी मना कर गए थे
मुझे शक होता है कहीं दादी ने हमसे छुपायी तो नहीं
क्वारंटीन होने की वजह!
उस सुबह देखा मैंने
इस दुनिया को बदलते
पृथ्वी के वृत्ताकार को सिमटते
सूरज को बिन्दी और
चाँद को एक मुखड़ा बनते
देखा ज़ुल्फ़ों को उस मुखड़े की तरफ़
ज्वार-सा उठते
और उसके दुप्पटे से चढ़ते-उतरते
तमाम ऋतुओं को!
उगते देखा इस पृथ्वी के:
दो हाथ, पैर
और दो कजरारी आँखों को!
उस रोज़ मैंने ग़ौर किया
पृथ्वी निरन्तर घूमती ही नहीं
ये कहीं कभी किसी सीढ़ियों पर बैठकर
चाय भी पीती है
उस लड़की की तरह!
दंगे में शामिल आदमी
फूलों से भरी इस दुनिया में
हथियार लिए हर शख़्स मुझे
सिंग को अपनी टोपी और
पूँछ को अपनी
पतलून में छुपाता हुआ
एक जानवर दिखता है!
जिधर कारख़ाना, उधर देश
विभाजन हुआ,
पूँजीपतियों की तरह
मज़दूरों को अब चुनना था
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में से
कोई एक विकल्प
जहाँ वो व्यतीत कर सकते थे अपनी
बची-खुची ज़िन्दगी
कमा सकते थे दो वक़्त की रोटी!
जहाँ गा सकते थे वे—
‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा…’
या फिर वो लगा सकते थे—
‘सारे जहाँ से अच्छा पाकिस्तान हमारा’ का नारा
कुछ ने देखा धर्म
कुछ ने ज़मीं
कुछ ने अपने प्रिय नेता को
और कुछ ने संसाधन
मज़दूरों की भी आयी बारी
सोचा किधर है जाना
चल पड़े झोला उठा
जिधर दिखा कारख़ाना!