‘Poora Ek Saal’, a poem by Ambareesh

मर्तबान में वह
भर रही है आम की
खट्टी, रसदार, महकती फाँकें
और न जाने क्यों
भला लगता है मुझे
गहरे में कहीं
लगता है
कि ठीक-ठाक रहेगा आगामी साल

भले मालूम है मुझे
कि बिल्कुल गिरगिट होता है
आने वाला साल, कल
तो भी भला लगता है मुझे
यों देखना उसे
-ज्यों सँभाल रही, सहेज रही हो
अनदेखा भविष्य
और फाँक-फाँक, डली-डली
भर रही हो मर्तबानों में स्वाद,
सुरक्षित और शांत

अचार डाल रही है
मेरी पत्नी
सुरक्षित कर रही है
पूरा एक साल…

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