प्रेम माने क्या है पता है मित्र?
मात्र मेरे होंठ, कटि सहलाकर
रमना नहीं
मात्र बातों का महल बना
उसमें दफ़ना देना नहीं।
आओ कम-से-कम एक बार
भीगो मेरे आँसुओं में
दुखी होओ मेरी यातनाओं में
गर हो सके तो।
सदा मेरे स्पंदनों को रौंद
जब आलिंगन में कस लेते हो तब सच कहूँ
तुम्हारे दृढ़ आलिंगन की रस वेला में, मित्र
पाती हूँ स्वयं को नीरस असुरक्षित
रुँधे तन, और
मन की पीड़ाओं के बीच
भीतर-ही-भीतर बिलखती
पर बाहर से हँसती मैं
इस कब्र में ले रही हूँ समाधि
जो हम दोनों के बीच बनी है।
तुम्हारी उदासीनता के निष्पन्द
अँगारों के ढेर पर
जलती उस प्रेम की चिता में
मैं तुम्हारी सती
तुम्हारे जीते-जी ही
तुम्हारे सामने ही इस तरह
‘सती’ होती जा रही हूँ।