रूपान्तर: बी. आर. नारायण
कितनी बसी है रक्त की बास इस धरती में
कितने लोग मरे, कितने लोग रोये
दुर्दैव है यह, आश्चर्य है यह
तब भी धरती घूमती ही रही
क्षण भर को भी भूलकर रुकी नहीं
भूमि त्यागने वाले उन अनन्त जीवों के लिए
एक क्षण का मौन भी
नहीं रक्खा गरजते सागर ने
दहाड़ती आँधी ने;
क्षण भर को रुके नहीं सूर्य चन्द्र
भूमि से उठे घोर क्रन्दन को सुनकर भी
लोकान्तरों से बात बात पर पुष्पवृष्टि
करने वाले गन्धर्व, किन्नर, देवताओं ने
झाँका तक नहीं उस ओर
सर्व अन्तर्यामी कहाने वाले
उस भगवान ने भी चूँ तक नहीं की
बहती रही रक्तधार निरन्तर
बहती चली दूसरे नदी-नालों के संग
समुद्र की ओर- सागरं प्रति गच्छति सा
ऐसे ही बहती रही तो मुझे है डर
रुद्र समुद्र में कहीं न आ जाय प्रलयंकारी ज्वार
हमारी सदानीरा नदियाँ ही चाहिए हमें
जीवों के रक्त की नदियाँ नहीं चाहिए हमें
रोकनी हैं न ये रुधिर की लाल नदियाँ!
पोंछनी है न हमें मृतकों, जन्मदाताओं की अश्रुधाराएँ!