‘Rona’, a poem by Vijay Rahi
बड़े-बुज़ुर्ग कहते हैं
मर्द का रोना अच्छा नहीं
अस्ल वजह क्या है
मैं कभी नहीं जान पाया
मगर मैं ख़ूब रोने वाला आदमी हूँ।
माँ कहती है
मैं बचपन में भी ख़ूब रोता था
कई बार मुझे रोता देख
माँ को पीट दिया करते थे पिता
इसका मुझे आज तक गहरा दुःख है।
मुझे याद है धुँधला-सा
एक बार मट्ठे के लिए मुझे रोता देख
पिता ने छाछ बिलोती माँ के दे मारी थी
पत्थर के चकले से पीठ पर
चकले के टूटकर हो गये दो-टूक
आज भी बादल छाने पर दर्द करती है माँ की पीठ।
पाँचवी क्लास में कबीर को पढ़कर
रोता था मैं ड़ागले पर बैठकर
‘रहना नहीं देस बिराना है’
काकी-ताई ने समझाया…
‘अभी से मन को कच्चा मत कर,
अभी तो धरती की गोद में से उगा है बेटा!’
ऐसे ही रोया था एक बार
अणाचूक ही रात में सपने से जागकर
पूरे घर को उठा लिया सर पर
सपने में मर गई थी मेरी छोटी बहिन
नीम के पेड़ से गिरकर
मेरा रोना तब तक जारी रहा
जब तक छुटकी को जगाकर
मेरे सामने नहीं लाया गया
उसी छुटकी को विदा कर ससुराल
रोया था अकेले में पिछले साल।
घर-परिवार में जब कभी होती लड़ाई
शुरू हो जाता मेरा रोना-चीख़ना
मुझे साधू-संतो, फ़क़ीरों को दिखवाया गया
बताया गया-
‘मेरे मार्फ़त रोती हैं मेरे पुरखों की पवित्र आत्माएँ
उन्हें बहुत कष्ट होता है
जब हम आपस में लड़ते हैं।’
नौकरी लगी, तब भी फफककर रो पड़ा था
रिजल्ट देखते हुए कम्प्यूटर की दुकान पर
मैं रोता था बच्चों, नौजवानों, बूढ़ों, औरतों की दुर्दशा देखकर।
मैं रोता था अख़बारों में जंगल कटने, नदिया मिटने, पहाड़ सिमटने जैसी भयानक ख़बरें पढ़कर।
मैं रोता था टी.वी, रेडियो पर
युद्ध, हिंसा, लूटमार, हत्या, बलात्कार के बारे में सुनकर,
देखने का तो कलेजा है नहीं मेरा।
माँ कहती है –
‘यह दुनिया सिर्फ़ रोने की जगह रह गई है।’
मैं अब भी रोता हूँ
मगर बदलाव आ गया मेरे रोने में
मैं अब खुलकर नहीं रोता
रात-रातभर नहीं सोता
थका-सा दिखता हूँ
मैं अब कविता लिखता हूँ।
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