जब हम कोई किताब पढ़ते हैं या कोई फ़िल्म देखते हैं, या किसी की ज़ुबानी कोई क़िस्सा सुनते हैं, तो दरअसल हम उस शख़्स का नज़रिया पढ़, देख या सुन रहे होते हैं! इस तरह वो शख़्स हमें अपनी दुनिया में ले जाता है और हम ख़ुद को कमोबेश उसी कहानी, क़िस्से या फ़िल्म का हिस्सा महसूस करने लगते हैं। हालांकि ये सिफ़त हर एक को हासिल नहीं कि कहने वाला जो बताना चाहता है आप बिल्कुल वैसा ही महसूस कर पाएं।
पढ़ना मुझे हमेशा से पसंद रहा है, हालांकि फिल्मों का शौक़ पढ़ने से कम पुराना है। आप ज़ुरूर सोच रहे होंगे कि मैं क्या कहना चाह रही हूँ। बात यह है कि पिछले कुछ समय से अपने कुछ दोस्तों से हारुकी मुराकामी और अकीरा कुरुसोवा के नाम और उनके काम के बारे में सुना। सुना.. ठीक था पर गाहे बगाहे ये नाम कानों पर पड़ने लगे तो सोचा चलो पढ़ते हैं इन्हें। पढ़ा तो पाया कि ये बिल्कुल वैसे ही राइटर/डायरेक्टर हैं जिनकी मैं ऊपर बात कर रही थी। इस तरह इनके काम से रूबरू हुई। लगा अब तक क्यों नहीं जाना मैंने इन्हें। ख़ैर मैं ख़ुश थी इन्हें पढ़ कर, इनके बारे में जान कर। यक़ीन जानिए इन्होंने अपनी दुनिया दिखायी और हैरान कर दिया। अभी मैं ‘संतोषी सदा सुखी’ की तर्ज़ पर इस हैरानी का लुत्फ़ ले ही रही थी कि किस्मत ने मेरी झोली में ‘थोड़ा और लीजिये न’ की तर्ज़ पर इनकी दुनिया देखने का मौका डाल दिया। अब मैं इनकार क्या करती सो मैंने किस्मत का मान रखा और जापान के सफ़र की तैयारियों में बिल्कुल ऐसे जुट गई जैसे पूरे साल न पढ़ने वाले बच्चे अपने सालाना इम्तेहान से ठीक पहले जुट जाते हैं, पूरी ईमानदारी के साथ।
जापान के नाम से जो तस्वीरें सबसे पहले ज़हन में उभरती हैं वो हैं हैरतनाक ‘डोरेमॉन’ और नासपीटे ‘शिनचैन’ की। जी हां ये दोनों खुराफ़ाती कार्टून किरदार जापान की ही देन हैं। हैरतनाक इसलिए कि मेरे बच्चे अपनी हर छोटी बड़ी खुशी के मेरे द्वारा पूरा किये जाने पर हैरानी से मुझे डोरेमोन का भारतीय वर्ज़न समझते हैं और अक्सर पूछते भी हैं- “मम्मा आप ने ये कैसे किया?” फिर खिलखिलाते हुए ”आप हमारी डोरेमोन हो!” का अवार्ड झोली में, और बाहें गले में डाल देते हैं। और इन सबके बावजूद दुनिया जहान की बदमाशियां और मीलों लंबी ज़ुबान वाला छीनचैन (जी हां यह मेरा शिन चैन का भारतीय वर्ज़न है) बनने में कोई कसर बाक़ी नही रखते।
ख़ैर यह कई लोगों की आपबीती होगी, मैं जानती हूँ, सो ज़्यादा नामक नहीं छिड़कूँगी! हाँ तो मैं कह रही थी कि जापान के साथ क्या याद आता है, तो इन कार्टून किरदारों के इतर जो याद आता है वो है सबसे ज़्यादा उम्रदराज़ लोगों का देश, भूकंप का देश, सुप्त और सक्रिय ज्वालामुखियों का देश। एक ऐसा देश जिसने परमाणु बमों को अपने सीने पर झेला है और मानव की इस खूंखार ईजाद का खामियाज़ा नागासाकी ओर हिरोशिमा की कई पीढ़ियों ने शारीरिक और मानसिक विकलांगता के रूप में चुकाया है।
यह तो थीं ज़हन में फौरी तौर पर याद आने वाली बातें जिनमें अब मुराकामी और कुरुसोवा का देश भी जुड़ गए थे। तो अपनी पूरी तैयारी के साथ मैं अपने सफ़र में थी। मुंबई से जापान का सफ़र 8 घंटे का है, रात 8 बजे शुरुअ हुआ सफ़र सुब्ह 7.30 बजे नरीता इंटरनेशनल हवाई अड्डे जापान पर खत्म हुआ। मैं किसी बच्चे की तरह हैरान होना चाहती थी कि उड़ी बाबा, हमारे 3.30 घण्टे कौन ले गया?? पर कुछ सुकून बड़े होने पर छिन जाते हैं, यह उन्हीं में से एक था। जापान भारत से 3.30 घण्टे आगे चलता है यह मालूम होने की वजह से मैं उस बालसुलभ आश्चर्यजनक जादू “मेरे 3.30 घंटे कहाँ गए?” का लुत्फ़ नहीं ले पायी।
नरीता हवाई अड्डे से सबसे पहले मुझे टोक्यो जाना था, जो कि वहां से तक़रीबन 1.30 घण्टे की दूरी पर है (यह ख़ास हुनर भी हमें ही हासिल है कि हम दूरी को बड़ी ही आसानी से घण्टों में भी नाप लेते हैं)। हवाई अड्डे से बाहर आते-आते 9 बज गए। बाहर निकलते ही मुआ मौसम पीछे पड़ गया। उसे किसी तरह पता लग गया था कि मुझे सर्दियां बेहद पसंद है बस फिर क्या था, वो मेरी कुल्फी जमाने को -4 डिग्री C हुआ पड़ा था। और मैं अपने पसंदीदा मौसम से अचानक एनकाउन्टर होने पर मुंह से बिना सिगरेट या चूल्हे के धड़ाधड़ कुड़कुड़ाते हुए धुआँ निकाले जा रही थी। काँपते हुए बसारूढ़ यानी बस में सवार हुई, जो मुझे टोक्यो ले जाने वाली थी। उस 1.30 घंटे की दूरी तय करते हुए मेरी आँखें बस की खिड़की से यूं चिपकी थीं मानों हर गुज़रती हुई छोटी बड़ी चीज़, मंज़र, सब की तस्वीर खींच कर यादों के खाने में सहेज कर रख रही हों।
बस खिड़की से बाहर देखते ही देखते पहले पड़ाव ‘शिनेगावा’ पहुंच गए। जापान के प्रति मेरे उत्साह की एक ख़ास वजह ‘माउंट फूजी’ भी था, और दो-एक रोज़ में वहां जाना तय भी था। Mt. Fuji जापान का सबसे ऊँचा पर्वत होने के साथ ही सक्रिय ज्वालामुखी भी है। इसे वैश्विक धरोहर की श्रेणी में रखा जाता है। जापान में इसे ‘फूजी सान’ कह के पुकारा जाता है। ‘सान’ दरअसल एक आदरसूचक शब्द है ठीक वैसे ही जैसे हम किसी के नाम के साथ ‘जी’ का इस्तेमाल करते हैं। तो हुआ यूं कि मेरी हैरानी का कोई ठिकाना नहीं रखा जब होटल में अपने कमरे में पहुंचते ही मैंने फूजी सान को इंतज़ार करता पाया।
जी हां 34वीं मंज़िल पर होटल के कमरे की एक आदमक़द दीवार पूरी तरह से कांच की बनी थी जहां से मैं Mt.. Fuji को साफ़ देख सकती थी। और यक़ीन जानिए वो भी मुझे देख कर उतने ही खुश थे️ जितनी कि मैं उन्हें देख कर। सो फूजी सान के साथ इस फ़ौरी मुलाक़ात के बाद सफर की थकान उतारी गयी और उसके बाद शिनेगावा घूमने निकली।
शिनेगावा टोक्यो का एक महत्वपूर्ण उपनगर है। तकनीकी तौर से बेतहशा समृद्ध, ऊंची इमारतों से घिरा बेहद व्यस्त शहर, पर शोर का नामो निशान तक नहीं। बेहद अनुशासित लोग, साफ सुंदर शिनेगावा अपने कई धार्मिक शिरीन, बेहतरीन बाग़ीचों और एक्वेरियम के लिए जाना जाता है। और मुराकामी की कहानियों में इस जगह का ज़िक्र भी है यहां तक की एक कहानी का नाम ही ‘शिनेगावा मंकी’ है। यहां पहुंचने की खुशी यूं भी कुछ ज़्यादा थी कि यह अकीरा कुरुसोवा का जन्मस्थान है। और मैं यूँ खुश हो रही थी मानो उनसे मिलना होगा, पर शिनेगावा के हर शख़्स में हर जगह में कुरुसोवा थोड़े-थोड़े मौजूद थे, सो खुशी बरकरार रही। अकीरा कुरुसोवा के बारे में यहां कुछ बताती चलूं, आप जापान का गौरव माने जाते हैं, एक बेहतरीन फ़िल्म डाइरेक्टर, और स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर जाने जाते हैं। अपने कार्यक्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ बनने का इनका यह सफ़र कतई आसान नहीं था। आज भी उनके कार्य, उनकी जीवनी (Something Like an Autobiography) कई लोगों के लिए मार्गदर्शन का काम करते हैं।
शिनेगावा के आस-पास कई देखने लायक जगहें हैं। ‘असाकुसा’ जो कि जापान का सबसे पुराना और मशहूर बौद्ध मंदिर है। गिंज़ा, तमाची, अकिहबरा, टोक्यो हर जगह किसी ख़ास वजह से मशहूर है पर जो एक बात सब में एक सी थी वह यह कि हर जगह हैरानगी की हद तक विकसित, साफ, शांत, और पूर्ण नियोजित थी। शह्र और लोगों का अनुशासन सचमुच क़ाबिले तारीफ़ था।
पहले दो दिनों में शिनेगावा, टोक्यो और आस-पास की कुछ जगहें देखने के बाद रवानगी हुई हाकुने शह्र की ओर। हाकुने शह्र हाकुने पर्वत की तलहटी में बसा है। यह पर्वत भी सक्रिय ज्वालामुखी है जो पिछले 200 सालों से शांत है और यहां हाकुने में बसने वाले लोग इसको पूजते है इस यक़ीन के साथ कि वो फिर नहीं फटेगा।
शह्र की तलहटी में मौजूद है बेहद ख़ूबसूरत और शांत ‘आशी झील’ जो कि ज्वालामुखी के कारण ही बनी है। शह्र से झील तक का रास्ता रोप-वे से तय किया गया जिसमें रास्ते में हाकुने पर्वत के आस-पास मौजूद गंधक के झरने ज़मीन से फूटते हुए देखे जा सकते हैं। रोप-वे के केबिन से किसी बच्चे की सी उत्सुकता लिए लोग झांक रहे थे मानो विज्ञान की जीवित प्रयोगशाला में हों, जहां कुदरत live examples से सब समझा रही हो। उठते हुए हरे धुंए और सड़े अंडे की गंध ने H2S का होना पक्का कर दिया। इस अद्भुत नज़ारे को आंखों में और H2S को साँसों में भर के आशी झील तक पहुंचे।
यहां कुदरत विज्ञान के इतर कुछ और ही पढ़ाने के मूड में थी तो लगातार गिरता हुआ तापमान कुदरत का साथ दे रहा था। बेहद सौम्य, शांत आशी झील से फूजी सान को साफ तौर पर देखा जा सकता था, सो जी भर के देखा भी गया। हाकुने के आसपास गरम पानी के झरने भी हैं जिन्हें जापान में ‘ओनसेन’ कहा जाता है। यहां आप बाक़ायदा नहाने का लुत्फ़ भी ले सकते हैं। -14०C के तापमान में जबकि लफ़्ज़ तक बर्फ की तरह जमे हुए निकल रहे थे (मानो जिसे सुनना हो वो लफ़्ज़ों को पिघलाएं और समझे) बिला झिझक यह लुत्फ़ लिया गया।
देर रात गए वापिस अपने ठिकाने यानी होटल के कमरे पर पहुंच दिन भर की यादों के साथ जुगाली करते हुए, और आने वाले दिन के प्लान बनाते हुए, फूजीसान को आंखों में लिए, नींद के आगे घुटने टेक दिए गए।
नए दिन का नया उत्साह लिए सुबह सवेरे टोक्यो से नागासाकी को रवानगी हुई। नागासाकी के बारे में जो भी इतिहास में पढ़ा गया था उस बिना पर अपनी आंखों से उसी जगह को देखने और जानने का मौका और भी ज़ुरूरी मालूम हो रहा था। सारा कौतुहल लिए नागासाकी पहुंचे। क्यूशू आईलैंड पर बसे नागासाकी में यूं तो कई मंदिर, म्यूज़ियम, बाग़ीचे हैं, पर मुझे जिस बात ने सब के ज़्यादा मुतासिर किया वो थी वहां के लोगों की जिजीविषा जिन्होंने पूरी तरह मिस्मार हो चुके शह्र को नए सिरे से न सिर्फ फिर से खड़ा किया है बल्कि दुनिया के सामने एक मिसाल भी पेश की है। कुदरती और तकनीकी रूप से पूरी तरह समृद्ध नागासाकी को बिला शक़ क़ाबिले तारीफ़ पाया।
एक और यादगार लम्हा जो नागासाकी से मिला वो था रात के वक़्त शह्र का नज़ारा; यह न भूल पाने वाला नज़ारा था। ऊंचाई से देखने पर समंदर के किनारे बसा यह शहर यूं लग रहा था मानो अनगिनत सितारों का मजमा लगा हो। बाद में मालूम हुआ कि दुनिया के तीन शह्र जो अपने बेहतरीन रात के नज़ारे की वज्ह से जाने जाते हैं, नागासाकी उनमें से एक है। देखने के बाद महसूस हुआ कि इसे होना भी चाहिए।
नागासाकी में गुज़रा यादगार वक़्त लिए अगले दिन ‘कोबे’ शहर की ओर रुख किया। कोबे शहर भी अपने आप में कई पौराणिक जगहें समेटे है पर वो 1995 में भयावह भूकंप ‘हानशिन’ से होने वाली त्रासदी ओर उस से भी ज़्यादा इस त्रासदी से बेहद कम वक्त में उबर कर शहर को पुरानी रफ्तार में लाने के लिए जाना जाता है। कोबे से अगली यात्रा क्योटो तक की थी। सो ये सफ़र भी मंज़िल को पहुंचा।
क्योटो स्टेशन से बाहर निकलते ही ‘क्योटो टॉवर’ ने इस्तक़बाल किया। होंशू आइलैंड पर बसा क्योटो कभी जापान की राजधानी था पर अब वो जापान की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर जाना जाता है। जगह-जगह जापानी संस्कृति की छाप लिए मंदिर, जापानी तकनीक से बने पुरानी कलाकृतियों से सजे, लकड़ी के बने घर, श्राइन, बौद्ध धर्म के धार्मिक स्थल, बागीचों, स्थानीय खानपान, और खरीदारी के लिए मशहूर है क्योटो। हम इसे मंदिरों का शहर भी कह सकते हैं या फिर जापान का मथुरा या बनारस कह लीजिए, जी हां क्योटो में 2000 से भी ज़्यादा मंदिर, बौद्ध मठ हैं।
सर्वसुविधा, सर्वतकनीक युक्त क्योटो पारंपरिक संस्कृति और आधुनिकता का सराहनीय मिश्रण है। पतली, संकरी परंतु सुनियोजित गालियाँ किसी न किसी मंदिर, या श्राइन को ले जाती हैं, अपने किनारों पर रंगबिरंगी दुकानें लिए, मुस्कुराते चेहरों से आपका इस्तक़बाल करती हैं।
जगह-जगह जापानी पारंपरिक लिबास ‘कीमोनो’ में सजी गुड़ियों जैसी लड़कियां छोटे-छोटे डगमग से क़दम भरती हुईं वास्तव में गुड़िया ही मालूम हो रही थीं। क्योटो का चप्पा-चप्पा जापानी तहज़ीब को सहेजे था, और हर बाशिंदा एक कहानी। ऐसे में ‘मुराकामी’ जैसा कहानीकार अगर सारी दुनिया को अपने किरदारों से मुग्ध कर देता है तो उसमें हैरानी की कोई बात नहीं। जी हाँ, आपने ठीक पहचाना। मैं बात कर रही हूँ ‘हारुकी मुराकामी’ की।
मुराकामी दुनिया के बेहतरीन लेखकों में से एक हैं और मूलतः क्योटो के रहने वाले हैं। क्योटो में सबसे पहले इनारी पहाड़ी की तलहटी पर बने ‘फुशिमी इनारी ताईशा’ पर जाना हुआ, जो कि शिंटो श्राइन (Place of God) है। शिंटो श्राइन दरअसल अपनी विशेष बनावट की वज्ह से जाना जाता है, और यहां जापान के लोग ईश्वर से संबन्धित वस्तुओं, ग्रंथों इत्यादि को सहेजते हैं परंतु यह स्थल पूजा हेतु उपयोग में नहीं लाया जाता। अनगिनत केसरिया खंभों से बने दरवाजों से गुजरते हुए इनारी पहाड़ी की चोटी तक पहुंचने में क़रीबन 1 घंटे लगता है जहां से क्योटो शह्र का नज़ारा लिया जा सकता है। पूरी तरह कुदरत के आंचल में समाई यह चोटी आपको निस्तब्ध कर देती है।
अपने ज़हन में नई यादें लिए अगले पड़ाव का रुख किया जो था Giant Buddha Shrine। 1945 की परमाणु त्रासदी के ठीक 10 साल बाद 1955 में बना यह युद्ध स्मारक विश्व शांति को समर्पित है और रयोजन केनन (केेेनन यानी God of Mercy) के नाम से भी जाना जाता है।
पहाड़ियों के बीच 1.5 मीटर ऊंची बुद्ध की ध्यान मुद्रा में स्थापित श्वेत प्रतिमा देख कर ही आप शांति की झलक पा सकते हैं। युद्ध की त्रासदी के शिकार और हताहत हुए लोगों के लिए शांति की दुआ करने के बाद ‘कियोमीज़ू डेरा’ मंदिर का रुख किया।
रंग बिरंगी सीढ़ियों वाली गलियों से होते हुए जब मंदिर तक पहुंचे तो पता चला कि मंदिर में रेनोवेशन चल रहा है इसीलिए मंदिर का ज़्यादातर हिस्सा बंद है। ओर यह काम अभी अगले 4 वर्षों तक चलेगा। सो मेरी तरफ से इस जगह का विवरण 4 वर्ष बाद ही मिलेगा। (अगर दोबारा जाना हुआ तो..)।
इसके बाद जिस जगह जाना हुआ वो जगह इस क़दर ख़ूबसूरती और तस्कीन अपने में समेटे थी कि देखने वाला देखता रह जाये। जी मैं बात कर रही हूँ ‘किन का कु-जी मंदिर की। इसे Temple of Golden Pavilion भी कहते हैं। 14वीं शताब्दी में बना यह तिमंज़िला ज़ेन बौद्ध मंदिर बाहर से सोने की पत्तियों से ढ़का है। एक तालाब के बीचोबीच खड़ा यह मंदिर आपकी आंखों को एकबारगी क़ैद करता मालूम होता है।
ढलते सूरज की किरणें मंदिर को सोना मढ़ती मालूम होती हैं और पानी में पड़ती मंदिर की परछाई और सूरज की किरणें एक आलौकिक सा माहौल बनाती हैं, ऐसा जिसमें कि आंखें क़ैद ही रहना चाहती हैं।
स्वर्ण मठ की पुरसुकून तस्वीर अपने ज़हनो दिल में लिए अब क्योटो से टोक्यो की ओर वापसी करनी है। लीजिये यहां एक और अजूबा मेरे इंतज़ार में था। और तय हुआ है 2022 तक ये अजूबा हिंदुस्तान में भी आ जायेगा। जी सहीह समझे आप, मैं ‘शिन केन सान’ की बात कर रही हूँ। शिनकेन मतलब बुलेट ट्रेन और सान मतलब वही..आदरसूचक। चमकदार सफ़ेद सांप सी लहराती हुई बुलेट ट्रेन जब प्लेटफार्म पर आकर खड़ी हुई तो क़सम से एकबारगी बदन में झुरझुरी सी छूट गयी। झुरझुरी समझते हैं न आप?? अरे वही जो पहले पहल ट्रेन या प्लेन में बैठने से पहले महसूस होती है न बिल्कुल वही। तय वक़्त पर ट्रेन के दरवाजे खुले और इंतज़ार कर रहे लोग जो पहले से ही लाइन्स बना कर खड़े थे बेहद आराम से बिना किसी अफ़रातफ़री के ट्रेन में बैठ गए। मैं अपनी पूरी उत्सुकता लिए ट्रेन के चलने के इंतज़ार में थी कि ज़मीन पर हवा से बातें करने वाली यह ट्रेन जब अपनी रफ्तार पकड़ेगी तो बाहर क्या नज़ारा होगा।
मेरे देखते ही देखते ट्रेन ने यूं रफ्तार पकड़ी मानो हवा से भी आगे निकल जाना चाहती हो। बाहर मंज़र के नाम पर रौशनी की लक़ीरें दिखाई पड़ रही थी। उस पर मज़े की बात यह कि इतनी तेज चलती ट्रेन के अंदर रफ्तार का कोई अहसास नहीं था। मुझे हैरानी इस बात की भी थी कि ट्रेन पूरी तरह से भरी होने के बावजूद अंदर कोई शोर शराबा नहीं था बल्कि ग़ज़ब की शांति थी। ऐसा नहीं कि लोग बात नहीं कर रहे थे, बल्कि वो लोग इस तरह से बात कर रहे थे कि साथी यात्रियों को कोई परेशानी न हो। जापानी लोगों का यह अनुशासन मुझे मुतासिर कर गया। और इससे पहले कि मैं कुछ और मुतासिर होती, टोक्यो आ गया। क्योटो से टोक्यो तक का 538km का सफ़र शिनकेन सान ने महज 2 घ. 20 मिनिट में तय कर लिया। अब गर इसे Best Public Transportation on Earth कहा जाता है तो भाई इसमें ग़लत क्या है। हमें इस अजूबे का भारत में आने का इंतज़ार रहेगा।
हाँ तो यूं अपनी सारी हैरानगी शिन केन सान पर वार कर टोक्यो लौटी। यहां से अगले दिन सुब्ह वापसी तय थी। सो बाक़ी बची रात में यायावरी के आखिरी पड़ाव में ‘टोक्यो स्काई ट्री’ की ओर रुख किया। सुमिदा नदी के किनारे बना यह टावर 634 m. की ऊंचाई के साथ बुर्ज ख़लीफ़ा, दुबई के बाद विश्व का दूसरा सबसे ऊंचा टावर है। इसे नीचे खड़े हो कर देखने भर से मेरी गर्दन ने 90 डिग्री का कोण बना लिया, और इस से पहले की यह कोण परमानेंट बनता मैं गर्दन को अपनी ओरिजनल स्थिति में ले आयी।
2008 से 2012 तक, 4 साल के समय में बना यह टॉवर मई 2012 को अवाम के लिए खोला गया था। पहले पहल यह बतौर रेडियो स्टेशन इस्तेमाल होता था और अब तमाम मनोरंजन के साधनों से युक्त है यह टॉवर। इसके शीर्ष से टोक्यो का अद्भुत नज़ारा देखा जा सकता है। इसके लिए आप एलिवेटर की जगह सीढ़ियों का इस्तेमाल भी कर सकते हैं; आपको तय करनी होगी मात्र 2530 सीढियां️। ऊपर से देखने पर यूं लग रहा था मानो आसमान नीचे बिछा दिया गया हो, और सितारे उस पर यूं ही बेतरतीबी से टांक दिए हो। आज मैं ऊपर, आसमाँ नीचे… इस गाने का लुत्फ़ स्काई ट्री पर पूरी तरह लिया गया, बिना यह सोचे कि औरों के कानों पर क्या गुज़रेगी!
आख़िरकार उस मंज़र को आंखों में समेट कर न चाहते हुए भी वापसी की गई। होटल पहुंचने पर पाया कि अकेली मैं ही उदास नहीं हूँ, फूजीसान भी दुःखी मालूम पड़ रहे थे। शायद सोच रहे हों कि कौन फिर उन्हें यूँ देखेगा.. ख़ैर!
रात भर में पिछले 8 दिनों की हर छोटी बड़ी याद को संभाला तो पाया जापान में जहाँ कुदरत गाहे बगाहे भूकंप और ज्वालामुखी के ज़रिए गर कहर बरपाती है तो यहीं पर उसने अपना बेहतरीन कलाम भी तरह-तरह के नज़ारों की मानिंद कह छोड़ा है। लौटने से पहले दिल ही दिल में जापान के लोगों को सलाम किया, उनके अपने देश के प्रति अनुसाशन, उनकी हर बार ज़िन्दगी को चुनने के पक्के इरादे, और उनकी दयालुता के लिए जो उन्होंने कई जगह मुझ पर दिल खोल कर लुटाई।
सो यायावरी के इस अंतिम पड़ाव से जी भर यादें समेटी, फूजीसान को ढेर सारे प्यार के साथ, जापान को बाइज़्ज़त और भरे दिल से कहा.. सायोनारा!!