‘Kali Cheel’, a story by Madhu Kankariya

कोई स्मृति ज़िन्दगी से बड़ी नहीं होती। और न ही कोई सोच।

पर कुछ स्मृतियाँ, कुछ ज़िंदा और गर्म अहसास टीस बन कर ताउम्र सालते रहते हैं आपको।

चेखव की एक कहानी पढ़ी थी – एक क्लर्क की मौत। जिसमें एक क्लर्क होता है। एक बार वह थिएटर हॉल में कोई नाटक देख रहा होता है कि अचानक उसे ज़ोर से छींक आती है, छींक इतनी तेज़ होती है कि छींक के कुछ छींटे सामने बैठी मटकी-सी मोटी और गंजी खोपड़ी पर गिर जाते हैं। गंजी खोपड़ी घूम कर, आँखें तरेर कर पीछे देखती है तो क्लर्क के होश उड़ जाते हैं।

वह उसका बॉस था।

बॉस उससे कुछ नहीं कहता, पर अफ़सरशाही का आतंक, उसके माँस में ही नहीं हड्डियों तक में धंसा था। वह और अधिक चैन से बैठ नहीं पाता, बार-बार उसे लगता कि अनजाने ही सही पर उससे भयंकर अपराध हो गया है। उसकी बदतमीज़ छींक के गंदे छींटे बॉस की खोपड़ी पर नहीं पड़ने चाहिए थे, जाने बॉस क्या सोचे, कौन जाने उसे नौकरी से ही…

डर पंख पसारने लगा, बॉस का आतंक कंधे पर बैठे गिद्ध की तरह हर पल उसे अपनी नुकीली नोक से लहूलुहान करने लगा। अब गई नौकरी! थिएटर ख़त्म किये बिना ही वह घर लौट आता है और सीधे पहुँचता है, बॉस के यहाँ। काफ़ी इंतज़ार के बाद बॉस घर आता है। जैसे ही बॉस की निगाह उस पर पड़ती है, वह गिड़गिड़ाता है – “बॉस, मैंने जानबूझ कर नहीं छींका। मुझे माफ़ कर दें।”

बॉस उसे कुछ नहीं कहता है, बस एक ठंडी और उदासीन नज़र उस पर डाल कर रह जाता है। वह और अधिक डर जाता है। बॉस सचमुच उससे बहुत नाराज़ है, इसीलिए उसने मेरी बात का जबाब तक नहीं दिया। उसके वजूद का अंश-अंश इस डर से ग्रस्त हो जाता है कि उससे दुनिया का सबसे बड़ा अपराध हो गया है। बॉस के आतंक के नुकीले कांटे उसे रह-रह कर चुभते हैं, पल भर के लिए भी वह पलक तक झपका नहीं पाता है, ख़ौफ़ और तनाव की नोक पर टंगा वह आधी रात में ही फिर जा पहुँचता है बॉस के घर – “सर, मुझे माफ़ कर दें, मैंने जान बुझ कर नहीं छींका था।”

इस बार बॉस सचमुच अपना आपा खो देता है, और चीख़ कर कहता है – “गेट आउट।”

सुबह वह क्लर्क अपने कमरे में मृत पाया जाता है।

सवाल यह उठता है कि यह कहानी मुझे क्यों याद आती है रह-रह कर! क्या इसीलिए कि इसके सूत्र अवचेतन की किसी गहरी पीड़ा या अपराधबोध से जुड़े हैं? शायद हाँ! क्योंकि अपराधबोध आसमान में उड़ती वह काली चील होती है जो आपके ज़रा-सा ख़ाली होते ही झपट्टा मार दबोच लेती है आपको। तो किया जाए अपने ही अतीत का पोस्ट मार्टम? क्या हर्ज!

क़िस्सा कोताह यह कि वे 86-87 के दिन थे, संचार क्रांति का शुरुआती दौर।

कम्प्यूटर छोटे होते होते डेस्क पर आने लगे थे, और सस्ते होते होते छोटे-छोटे ऑफ़िस की भी ज़रूरत बनने लगे थे। क्योंकि अब ज़माना तेज़ चलने वालों का था इसलिए अब अकाउंट भी लाल रंग के मोटे-मोटे खाते से निकल कर कम्प्यूटर के परदे पर दनादन चलने लगे थे। रातों रात कम्प्यूटर हवा पानी की तरह अनिवार्य बन गया था। जगह-जगह कुकुरमुत्ते की तरह कम्प्यूटर सेंटर खुल गए थे। हमारे स्वप्न भी अब कम्प्यूटर के साथ जुड़ने लगे थे। अब आसमान उसका था जिसे कम्प्यूटर चलाना आता था, स्वप्न उसके दौड़ते थे, जिनकी उंगलियां कम्प्यूटर पर तेज़-तेज़ दौड़ती थीं। पर पुरानी पीढ़ी जिन्हें न कम्प्यूटर चलाना आता था, और ज़िन्दगी की घिस-घिस ने जिन्हें इतना घिस दिया था कि जिनमें नया कुछ भी सीखने की उर्जा और उमंग ही नहीं बची थी, कम्प्यूटर के बारे में सोच-सोच उनका रक्त चाप बढ़ने लगा था। उनकी ऊर्जा और स्वप्नों का लीकेज होने लगा था। क्योंकि कम्प्यूटर के चलते उनकी ज़िन्दगी अनाथ हो इधर-उधर भटकने लगी थी।

मैं उन दिनों कोलकाता के प्रसिद्ध टी-एक्सपोर्ट हाउस में ताजा-ताजा कम्प्यूटर प्रोग्रामर बनी थी। मेरा काम था उस एक्सपोर्ट हाउस को कम्प्यूटराइज्ड करना, कुछ इस तरह कि धीरे-धीरे सारी सम्बन्धित एवं ज़रूरी रिपोर्ट कम्प्यूटर से ही निकले। अब तक सारी रिपोर्ट एक्सपोर्ट हाउस के टाइपिस्टों एवं बाबुओं द्वारा ही तैयार की जाती थी। चूंकि वह एक्सपोर्ट हाउस था, इस कारण इन टाइपिस्ट और बाबुओं का भी अपना अलग ही रुतबा था जो मेरे आने के चलते एक दम से धचक गया था। आधे से अधिक टाइपिस्टों को पिउनगीरी में लगा दिया गया था, और जो आधे बचे हुए थे वे भी ऑक्सिजन पर थे, कब गिर जाए उन पर बेकारी या अपमान की गाज। कम्प्यूटर उनके लिए एक ऐसा खलनायक था जो न केवल उनकी पतंग काट रहा था वरन उनके स्वप्न और सम्मान को भी देश निकाला दे रहा था। कम्प्यूटर से निकली रिपोर्ट की चकमक, स्पीड और परर्फेक्ट्नेस को देख वे ठंडी साँसें लेते, बीते दिनों की जुगाली करते और अपने हाथों से अपनी मेज़ पर मुक्के मारते।

जब कभी कम्प्यूटर से निकली रिपोर्ट में मेरी ग़लत समझ के चलते कोई भूल निकल आती या आँकड़ें ग़लत बोलने लगते, उनके चेहरे पर सौ-सौ गुलाब खिल जाते, हवाएँ तेज़-तेज़ चलने लगतीं। उनके होंठ जो इन दिनों नौकरी जाने की चिंता में हँसना भूल गए थे, उन पर हँसी किसी चिड़िया की तरह फुदकने लगती। वे फिर पुराने दिनों का स्वप्न देखने लगते जब वक़्त ज़िन्दगी से भरपूर था, और इतने नीरस काम करते हुए भी वे फ़िल्मी गीत गुनगुनाने, चुटकुला सुनाने और मुख्यमंत्री ज्योति बाबू पर बहस करते हुए ठहाका लगाने की कूबत रखते थे। उन दिनों को सलाम करते हुए वे फिर अपनी कल्पना में कम्प्यूटर को बाहर निकाल अपनी टाइपिंग मशीन और अपने पुराने साथियों को बाइज़्ज़त प्रतिष्ठित करने लगते। अपने आस-पास से असंपृक्त और तटस्थ मैं उनकी बेबसी का स्वाद लेती, उनके स्वप्नों से खेलती, उन्हें घायल करती तेज़ी से सिस्टम को कम्प्यूटराइज्ड करने में लगी थी।

उन्हीं प्रयोगों वाले दिनों में एक दिन एकाएक मेरी हार्ड डिस्क क्रेश कर गयी। अगले दिन एक्सपोर्ट हाउस को अपनी रेट रूस, जर्मनी और जापान आदि देशों के प्रतिनिधियों को भेजनी थी, क्योंकि उसी दिन ऑक्शन होने वाला था। हमारा एक्सपोर्ट हाउस स्थानीय बाजार से ऑक्शन से चाय-पत्तियाँ ख़रीदता, फिर उनकी ब्लेंडिंग, टेस्टिंग और ग्रेडिंग आदि कर उसे रूस, जर्मनी जैसे देशों को मोटे फ़ायदे में एक्सपोर्ट करता था। बहरहाल ऊपर से आदेश आया, सारी रिपोर्ट सुबह तक लग जानी चाहिए।

मेरे आने से पहले डेढ़ पसली के फोनी बाबू यह सब देखते थे। वे एक्सपोर्ट विभाग के सबसे अनुभवी टाइपिस्ट कम क्लर्क थे। कोई साधारण दिन होता तो वे कम्प्यूटर की इस दग़ाबाजी पर बहुत खुश होते, शायद मित्रों को दावत तक दे डालते क्योंकि उन दिनों उनका सबसे बड़ा दुश्मन यदि कोई था तो वह कम्प्यूटर ही था। पर वह एक महत्वपूर्ण एवं उड़ता हुआ दिन था, रिपोर्ट उनकी देख रेख में ही निकलती थी। एक्सपोर्ट डिपार्टमेंट की सारी रिपोर्ट का दायित्व उनके अधीन था। उन्होंने कातर निगाह से मुझे देखा और जाल में क़ैद पक्षी की तरह फर्फराए – “सुबह तक 230 पेज की सारी रिपोर्टें कैसे टाइप होंगी? क्या दूसरे कम्प्यूटर का इंतज़ाम नहीं हो सकता? बेक अप (दूसरी फ्लॉपी में संगृहीत डेटा) तो है ही आप के पास?”

मैंने गर्दन उचकाई और अपनी अक़्ल से पंगा लेते हुए कहा, “मैनेजमेंट से बात कीजिए।”

उनका अधबूढ़ा चेहरा हलके से कांपा। आंखों में बॉस का ख़ौफ़ उभरा। सामने के दो टूटे दांतों से दयनीय हंसी बिखेरते वे लटपटाई आवाज़ में पिनपिनाये – “साहब बहुत ग़ुस्सेवाले हैं, मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ती, एक बार तो ग़ुस्से में उन्होंने रजिस्टर ही मुझ पर फेंक दिया था।”

क़रीब खिसक कर वे फिर फुसफुसाए- “आप पर तो वे बहुत मेहरबान है, आपके साथ तो हंसी मज़ाक तक चलता है, आपकी बात वे ज़रूर सुनेंगे, आप ही ज़रा…”

वे खिसकते हुए मेरे इतने क़रीब आ गए थे कि उनकी साँस, मैले कपड़े और बालों में लगे कड़ुए तेल की गंध से मेरा जी मिचलाने लगा था। मेरे लिए यह कोई महामुश्किल कार्य नहीं था। मैंने एक निगाह घड़ी पर डाली और एक निगाह उनके चेहरे पर डाली जहाँ डर, कुरूपताड और मनहूसिअत के जाने कितने जाले लटक रहे थे। मुझे उस पूरे माहौल से जितनी अधिक वितृष्णा हो रही थी, फोनी बाबू की आँखों में उतनी ही अधिक उम्मीद की किरण कौंध रही थी, वे फिर लटपटाते प्रेम से बोले, “आप करेंगी न बात।”

बोलते बोलते जाने कैसे तो उनकी बाँई आँख दबी, मुझे लगा शायद इसी मनहूस शक्ल, गंदे कपड़े और अजीबोगरीब व्यवहार के चलते ही बॉस ने उन पर रजिस्टर फेंका होगा। उनकी यातना का दुष्ट आनंद लेती, गर्दन झटकती मैं यह जा वह जा।

दूसरे दिन ऑफ़िस पहुँची तो बड़ा विचित्र और दयनीय नज़ारा था। ज़िन्दगी जीता जागता युद्ध बन चुकी थी। गिरते डोलते बावन वर्षीय फोनी बाबू को तीन पिउन पकड़ कर टैक्सी में चढ़ा रहे थे। वे उनके पंजे से निकलने की असफल कोशिश कर रहे थे। बीच-बीच में वे अपनी अकड़ी गर्दन को दायें बायें हिला रहे थे। उनका दिल अभी भी बुझती लालटेन की तरह भक-भक कर रहा था। वे बुदबुदा रहे थे, “एखुनो चालीस पाता बाकि आछे” (अभी भी चालीस पन्ने बाकी हैं।)

पास खड़े दूसरे क्लर्क से मैंने पुछा- “माजरा क्या है?” तो पता चला फोनी बाबू रात भर मशीन पर मुंडी झुकाए टाइप करते रहे थे। रात बीत गयी फिर भी जब वे घर नहीं पहुंचे तो उनका लड़का पहली ट्रेन पकड़ ऑफ़िस पहुंचा। उस समय भी वे दीन दुनिया को भूल अपने अंगो को कछुए की तरह सिकोड़ (वह जनवरी की कुरकुराती रात थी), अपने आस-पास से निरपेक्ष दनादन टाइप करते जा रहे थे। उन्हें पता ही नहीं चला कि कब रात बीती और कब सुबह फूटी। उनके लिए सब कुछ स्थगित था, मिथ्या था। सत्य था सिर्फ़ उनकी नौकरी, टाइपिंग मशीन और 230 पेज।

यह भी पढ़ें: अनवर सज्जाद की कहानी ‘गाय’

Book by Madhu Kankariya:

मधु कांकरिया
मधु कांकरिया हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित लेखिका, कथाकार तथा उपन्यासकार हैं। उन्होंने बहुत सुन्दर यात्रा-वृत्तांत भी लिखे हैं। उनकी रचनाओं में विचार और संवेदना की नवीनता तथा समाज में व्याप्त अनेक ज्वलंत समस्याएँ जैसे संस्कृति, महानगर की घुटन और असुरक्षा के बीच युवाओं में बढ़ती नशे की आदत, लालबत्ती इलाकों की पीड़ा नारी अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं के विषय रहे हैं।