मैं जब भी कोई कसाईखाना देखता हूँ
दूर से ही पहचान लेता हूँ
दरअसल कसाईखाना एक ऐसी जगह होती है
जहाँ जीव जंतुओं को
उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़
मौत के घाट उतारा जाता है
ऐसा करने का मकसद
या तो स्वार्थ होता है या पूंजीवाद
लेकिन दिलचस्प बात तो यह है मेरे दोस्तो
कि बाहर से यह कसाईखाने
कसाईखानों जैसे नहीं दिखते

मैं जब भी कोई कसाईखाना देखता हूँ
दूर से ही पहचान लेता हूँ
कभी कभी यह एक ‘दुकान’ जैसा दिखता है
जिसके बाहर ‘कसाईखाना’ नहीं बल्कि
‘मीट शॉप’ लिखा होता है
टँगे होते हैं कुछ
ताज़ा ताज़ा चमचमाते हुए बकरे
जिनका माँस आपको मिल सकता है
केवल साढ़े तीन सौ रुपये प्रति किलो
और तो और यहाँ मुर्गे और मछली का माँस भी
आप के लिए हमेशा मौजूद है
कॉउंटेर पे खड़ा दुकानदार
आपकी मर्ज़ी के अनुसार
माँस के टुकड़े काटकर दे देगा
लेकिन दिलचस्प बात तो यह है मेरे दोस्तो
कि यह माँस आपको दिया जाएगा
काले लिफ़ाफ़े में डालकर
जिसको आप बहुत आसानी से
समाज की नज़रों से बचाते हुए
अपने घर लेजा सकते हैं
और अपने अंदर के जानवर को
सन्तुष्ट कर सकते हैं

मैं जब भी कोई कसाईखाना देखता हूँ
दूर से ही पहचान लेता हूँ
कभी कभी यह एक ‘दफ़्तर’ जैसा दिखता है
जहाँ मिलेंगे आपके बहुत सारे बकरे
जिनको कसाई ने यकीन दिलाया होगा
कि रेस में जीतने वाले बकरे को
कसाई बना दिया जाएगा
और इसी कसाई बनने की दौड़ में
वो बकरे कुत्तों की तरह भाग रहे होंगे
लेकिन आखिर में सिर्फ वो भेड़ ही बन पाएंगे
जो पूरा जीवन चारे के लिए
अपनी खाल बेचती रह जाती है
लेकिन दिलचस्प बात तो यह है मेरे दोस्तो
कि कुछ मुर्गियां भी मिलेंगी यहाँ
जिनको कसाई बन ने में कोई दिलचस्पी नहीं होगी
जो सिर्फ तब तक ज़िंदा रहेंगी जब तक अंडे देती रहेंगी
उसके बाद काट दी जाएंगी

मैं जब भी कोई कसाईखाना देखता हूँ
दूर से ही पहचान लेता हूँ
कभी कभी यह एक ‘छोटे बच्चे’ जैसा दिखता है
वो बच्चा जिसकी आंखों में
जिज्ञासा की चमक होती है
वो अक्सर सोचता है कि
अंग्रेज़ी की किताब में जो चिकिन की तस्वीर है
वो घर में बनने वाले चिकिन जैसी तो बिल्कुल नहीं
उसका मासूम ज़हन यह समझ नहीं पाता
कि इतना प्यारा सा जीव
खाना कैसे हो सकता है ?
‘आप’ से पूछने पर भी
उसे कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिलता
लेकिन दिलचप बात तो यह मेरे दोस्तो
कि एक दिन वो अपनी उन्ही चमकीली आंखों से
मुर्गे को कटते हुए देखता है
और उसकी आँखों के पर्दे पर
बन रही तस्वीरें कसाई बनकर
उसके बचपन को,
उसकी मासूमियत को,
और जिज्ञासा की चमक को
छोटे छोटे टुकड़ों में काट
खामोशी के काले लिफाफों में डाल
अंधेरों को बेच देती हैं

मैं जब भी कोई कसाईखाना देखता हूँ
दूर से ही पहचान लेता हूँ
कभी कभी यह एक ‘देश’ जैसा दिखता है
यहाँ कसाई खुद बकरे की खाल पहनता है
और तमाम बकरों, बकरियों, मुर्गों और मुर्गियों में
नफरत फैलाता है
जिस नफ़रत के कारण वो एक दूसरे को काटते रहते हैं
और यह सब कसाई सिर्फ इसलिए करता है
कि उसे मुफ्त का दूध और अंडे मिलते रहें
लेकिन दिलचस्प बात तो यह है मेरे दोस्तो
कि तमाम बकरों, बकरियों, मुर्गों और मुर्गियों को
हर पांच साल बाद अपना कसाई
खुद चुनने का मौका भी दिया जाता है

मैं जब भी कोई कसाईखाना देखता हूँ
दूर से ही पहचान लेता हूँ
कभी कभी यह उस ‘मकान’ जैसा दिखता है
जिसके बारे में बात नहीं करनी चाहिये
जहाँ ‘आप’ कसाई बन कर जाते हैं
और आपके सामने पिंजरे से निकाल कर
बकरियों की नुमाइश लगाई जाती है
काले लिफ़ाफ़े उतारकर बोलियां लगती हैं
बोली में जीती हुई बकरी को लेकर
आप ‘स्लॉटर रूम’ में जाते हैं
और अपने अंदर का भेड़िया सन्तुष्ट होने तक
उसे दांतों से नोचते हैं
लेकिन दिलचस्प बात तो यह है मेरे दोस्तो
यहाँ बकरियों का बदन नहीं
उनकी उम्रें काटी जाती हैं

मैं जब भी कोई कसाईखाना देखता हूँ
दूर से ही पहचान लेता हूँ
कभी कभी यह एक ‘कविता’ जैसा दिखता है
यहाँ कसाई कवि खुद होता है
और बकरे होते हैं कवि के ख्याल
जो उसके मन में शोर करते ही रहते हैं
जब तक वो उन्हें काट नहीं देता
ऐसे ही सात बकरे जो मेरे मन में
शोर कर रहे थे
मैंने सात बन्धों में काटकर
आपके सामने रख दिये हैं
इन्हें पंक्तियों के टुकड़ों में काटा है
मेटाफर्स के काले लिफाफे भी चढ़ाए हैं
जिनमें कुछ टुकड़े तो काफी बड़े बड़े भी काटे हैं
और कुछ
तो काफी
छोटे
छोटे भी
लेकिन दिलचप बात तो यह मेरे दोस्तो
मेरा मकसद पूंजीवाद हरगिज़ नहीं था
सिर्फ स्वार्थ था!

Previous articleक़त्ल
Next articleसौदा बेचने वाली
बिक्रम बमराह
खंजरों के शहर में फूल तलाशती रूह

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here