रज़ा उत्सव पर रज़ा फॉउण्डेशन द्वारा आयोजित कवि समवाय के एक सत्र ‘तम शून्य में जगत समीक्षा: कविता के अँधेरे-उजाले’ में मुक्तिबोध की इस पंक्ति पर वक्तव्य दिए गए। उनमें से नन्दकिशोर आचार्य जी का वक्तव्य कुछ अंशों में यहाँ प्रस्तुत है। हिन्दी कविता की वर्तमान विश्लेषण प्रक्रिया पर एक नज़र और कविता का वास्तविक उद्देश्य को जानने के लिए यह वक्तव्य बेहद महत्त्वपूर्ण है।
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यह जो विषय है और अभी जो इसको चारों तरफ से काफी समझने की कोशिश की गयी है, मैं इस विषय को एक और ढंग से भी देखने की कोशिश कर रहा हूँ। एक तो यह है कि जब हम कविता के अँधेरे-उजाले की बात करते हैं तो हम यह देखना चाहते हैं कि अपने समय का अँधेरा-उजाला कविता में किस तरह व्यक्त हुआ है। कैसे उसे चित्रित किया गया है, कैसे सम्प्रेषित (convey) किया गया है, कैसे कहा गया है और उसके क्या रूप हैं! यानी समय कविता में कैसे व्यक्त होता है! लेकिन मुझे एक दूसरी समस्या दिखायी देती है जिसपर मैं मानता हूँ कवियों को तो ज़रूर विचार करना चाहिए और कविता के जो सुधि पाठक हैं उन्हें भी। वह यह कि कविता के अपने अँधेरे-उजाले क्या हैं?
मुझे कोई ऐसा ज्ञान-विज्ञान का अनुशासन नज़र नहीं आता जिसमें अपने समय के अँधेरे-उजाले व्यक्त न होते हों। बस उनकी विधियां अलग-अलग हैं, उनको समझने की, कहने की, करने की। और अपनी विधियों के कारण ही वो अलग अनुशासन बनते हैं। लेकिन कविता के अपने अँधेरे-उजाले क्या हो सकते हैं? क्या हम कवि लोग उसको पहचानते हैं? या नहीं पहचानते हैं और हमारा ज़्यादा ध्यान विश्लेषण पर लगा रहता है? कि इतने विमर्श आ गए हैं और कविता में यह विमर्श है, वह विमर्श है।
मैं यह मानता हूँ कि कविता अपने में और सारी कलाएँ व अन्य अनुशासन भी, सभी अन्वेषण (exploration) की प्रक्रिया हैं जिसे अभी जगत समीक्षा कहा जा रहा था। जगत समीक्षा जो मुक्तिबोध का ही पद है, तो क्या कवि जो जगत समीक्षा करता है, क्या वह समीक्षा वैसी ही होती है एवं उन्हीं धारणाओं व अवधारणाओं तक पहुँचती है जिनपर दूसरे अनुशासन पहुँचते हैं? अगर वह अपने में एक अन्वेषण की प्रक्रिया है, तो वह अन्वेषण एक संवेदनात्मक या अनुभूतियात्मक अन्वेषण है। वह विमर्शात्मक अन्वेषण नहीं है। और अगर वह संवेदनात्मक या अनुभूतियात्मक अन्वेषण है, तो इस ज्ञान को एक संवेदनात्मक स्तर पर पाने की कोशिश होनी चाहिए। और वह जो अनुभूतियात्मक अन्वेषण है, वह अन्य अनुशासनों से कविता और कलाओं को अलग करता है। क्योंकि बाकी सारे अनुशासन विश्लेष्णात्मक होते हैं, वो एक तर्क पद्धति का अनुसरण करते हैं, कुछ अन्य आंकड़ों को लेकर चर्चा-ज़िक्र करते हैं, लेकिन अंततः कलाओं को छोड़कर सारे ज्ञान के अनुशासन हर चीज़ को एक अवधारणा में रिड्यूस कर देते हैं। अगर वो इसे एक अवधारणा में रिड्यूस नहीं कर पाते हैं, तो यह माना जाता है कि अच्छा काम नहीं हुआ है।
मुझे यह लगता है कि अनुभूति की प्रक्रिया इतनी संश्लिष्ट है कि उसे किसी एक अवधारणा में रिड्यूस नहीं किया जा सकता है। इसे हम यूँ भी समझें कि उसे किसी एक अर्थ में रिड्यूस नहीं किया जा सकता। एक सवाल यह निकला, जिसका और विश्लेषण होना चाहिए था, कि हमारा कविता को समझने और समझाने का ढंग क्या होना चाहिए और वह बात अर्थ पर जाकर टिक गयी। कविता का कोई अर्थ नहीं है। वह मूलतः एक अनुभूति को सम्प्रेषित करती है, किसी अवधारणा को नहीं। क्योंकि अर्थ सम्प्रेषित नहीं होता, एक अनुभूति सम्प्रेषित होती है, एक अनुभव सम्प्रेषित होता है। लॉरेंस डुर्रेल्ल का एक बड़ा प्रसिद्द वाक्य है-
“Truth is not not be stated, it is to be conveyed.”
सत्य का वक्तव्य नहीं किया जाता, उसको सम्प्रेषित किया जाता है। यही कविता का काम है। सम्प्रेषण का अर्थ वहां पर एक अनुभूति प्रक्रिया का सम्प्रेषण है। कवि उसी प्रक्रिया में से पाठक को गुज़ारने की या ग्रहीता को गुज़ारने की कोशिश करता है, जिसमें से होकर के उसने उस अनुभव में प्रवेश किया है। इसलिए अगर कविता और कलाएँ यह नहीं करेंगी तो और कौन करेगा?
अब सवाल यह है कि इसमें अँधेरा कहाँ हैं? जहाँ हम अपनी कविता की प्रमाणिकता विमर्शों, अवधारणाओं, विचारधाराओं, राजनैतिक सम्प्रदायों, चाहे वह किसी भी तरह का दर्शन हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह गांधीवाद है या मार्क्सवाद है या अद्वैत है, वहां से हासिल या सिद्ध करने की कोशिश करते हैं तो यही कविता का अँधेरा है, क्योंकि इस तरह वह अनुभूति की प्रक्रिया का खंडन है। उसका नकार है। हमारी हिन्दी की एक परंपरा यह रही है और अभी भी चल रही है कि हम हमेशा किसी कवि, कलाकार या उपन्यासकार के बारे में यह देखने की कोशिश करते हैं कि वह किस दर्शन से कैसे प्रभावित हुआ।
साहित्य का सारा विवेचन इन्हीं आधारों पर होता है कि वो रामानंद से प्रभावित थे या अद्वैत से प्रभावित हुए या बाकी किसी से प्रभावित थे! यही सब प्रभाव उनकी कविताओं में ढूंढें जाते हैं और इससे बड़ा कविता का अपमान और कोई नहीं हो सकता। क्योंकि कविता वह सब नहीं करती है जो आप उसमें इन तरीकों से ढूंढ रहे हैं। उसकी मुख्य चुनौती यह है कि वह उस अनुभूति की प्रक्रिया को अपनी पूरी संश्लिष्टता के साथ (जिसे जटिलता भी कहा गया, मैं उसे संश्लिष्टता कहता हूँ) आप तक कैसे सम्प्रेषित करती है कि उसमें एक संभावना इस बात की रहे कि आपके मन में उसे जाग्रत कर दे। वह कविता अधूरी कविता है जो आपके मन में अनुभूति को जाग्रत नहीं करती और केवल अर्थ समझाती है। इसलिए सही कविता वह होगी जो उस कविता को आपके मन में, और न केवल उस अनुभूति को बल्कि आपकी अपनी कई अनुभूतियों को, उनकी स्मृतियों को जाग्रत कर दे। तभी उसे एक अच्छी कविता माना जा सकता है या उस दिशा में उसे जाती हुई कविता माना जा सकता है।
अक्सर सब दूसरी कलाओं की तुलना में संगीत को बड़ा महत्त्व देते हैं। लेकिन ऐसा क्यों है? क्यों संगीत को ही शुद्ध कला माना गया? इसीलिए माना गया क्योंकि दूसरी कलाओं की तुलना में उसे किसी निश्चित अर्थ में रिड्यूस करना सबसे अधिक मुश्किल है। और मैं यह मानता हूँ कि कविता की असली चुनौती यह होती है कि वह संगीत के उस स्तर को कैसे छू सकती है! और यह भी कि वह ऐसा कैसे करती है क्योंकि वहां तो अर्थ है। एक शब्द अगर आप इस्तेमाल कर रहे हैं तो उसका एक अर्थ होगा। तो उसे उस अर्थ से कैसे बचाया जा सकता है? उसकी असली चुनौती यही है कि वहां पर शब्द किसी और का इंस्ट्रूमेंट हुए बिना, अपने समय में से गुज़रता हुआ, खुद को अनुभूति में रूपांतरित कर दे। जो शब्द का अनुभूति में रूपांतरित होना है, वो अर्थोत्त्तर कर देता है। हम अर्थ को हमेशा एक अवधारणा में रिड्यूस करके देखते हैं।
मुझे जे. कृष्णमूर्ति का एक कथन याद आता है- “सारा कॉन्सेप्चुअल नॉलेज सेकंड-हैंड नॉलेज है”। वह बासी ज्ञान है। जो ताज़गी अनुभूतियात्मक ज्ञान में होती है उसमें वो ताज़गी नहीं होती। लेकिन हम पता नहीं क्यों उसी के पीछे पड़े रहते हैं और उसी के आधार पर सभी चीज़ों को समझना चाहते हैं। लगातार हम यह समझने की कोशिश करते रहते हैं कि जो कविता में कहा गया है वो किसी मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, समाज शास्त्री ने कहा है या नहीं कहा है। जिसके मानी ही यह हैं कि हमने स्वयं यह मान लिया है कि हमारी जो ज्ञान की प्रक्रिया है, वह प्रक्रिया एक दूसरे दर्जे की प्रक्रिया है और उसकी प्रमाणिकता की तलाश हमको सिर्फ बाहर किसी और ज्ञान के आधार पर करनी है। मैं इसे कविता की प्रक्रिया में सबसे बड़ा अँधेरा मानता हूँ और इससे हमें सावधान रहने की आवश्यकता है। यह करना ही कविता के उजाले को पहचानना है। इस चीज़ को समझ पाना कि हम इसमें कहाँ-कहाँ ठोकर खा सकते हैं, इसे पहचान पाना ही कविता के उजाले को पहचान पाना है। तभी कविता का अपना उजाला आपके सामने प्रकट होता है, चाहे वह किसी अँधेरे को व्यक्त करने में ही प्रकट होता हो!
लोग कहते हैं- “अँधेरे में कुछ नहीं दिखता! इतना घना अँधेरा था कि कुछ नहीं दिखायी देता था!” मैं कहता हूँ- “अँधेरा तो दिखायी दे रहा था न?” वह अँधेरा हमारी आँख के प्रकाश के कारण दिखायी दिया। अगर आँख में रौशनी नहीं होती तो वह अँधेरा दिखायी नहीं देता। सो, अँधेरा भी दिखायी देता है। कविता की आँख के पास वह रौशनी है जिससे वह अँधेरा देख सकती है लेकिन वह ‘कविता के ढंग’ से देखती है। वह किसी और की आँख से उसे देखने की कोशिश नहीं करती। और यह सभी कलाओं के बारे में सही है। इसीलिए किसी पेंटर ने कभी कहा था- “जब भी कोई मेरी पेंटिंग को इन्टरप्रेट करने की कोशिश करता है तो वो मेरी पेंटिंग पर आघात कर रहा होता है”। हमारी कक्षाओं से इन्टरप्रेट करने की आदत पड़ गयी है और उसे इस तरह इन्टरप्रेट किया जाता है जिससे इम्तिहान में बस उसका अर्थ लिख दिया जाए। अच्छे अच्छे आलोचक भी वही करते रहते हैं।
Technique शब्द जिसे कविता में शिल्प कहा जाता है, ग्रीक वर्ड ‘techne’ से बना है जिसका मूल अर्थ होता है ‘जानने की विधि’। हम आजकल उसे ‘करने की विधि’ की तरह इस्तेमाल करते हैं। जिस तरह से जाना गया, अगर उसी तरह से किया जाए तो वह चीज़ रिपीट होती है और जानने की विधि ही करने की विधि हो जाती है। मैं यह मानता हूँ कि अगर कविता एक जानने की विधि है, तो उस जानने की विधि में कितने-कितने परिवर्तन हो पा रहे हैं, यह देखना ज़रूरी है। नई शैल्पिक युक्तियों के बिना, नई उद्भावनाएँ भी प्रकट नहीं हो पाती हैं। विज्ञान में भी अगर आप एक नया आविष्कार करते हैं तो आपको एक नई भाषा की ज़रुरत वहां पर पड़ती है। तो इस नई भाषा की खोज न कर पाना भी या उसकी तरफ सचेत न हो पाना भी दूसरा अँधेरा है।
यही कविता की प्रक्रिया में मिलने वाले अँधेरे हैं जिनसे हमें बचकर चलने की आवश्यकता होती है। सवाल सिर्फ इस बात का है कि क्या हम इस बात को समझने की कोशिश करते हैं या हमारा ध्यान सिर्फ इसी पर लगा रहता है कि मैंने क्या-क्या कह दिया है। मैंने क्या ‘जान’ लिया है यह हमारे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं रहता। और मैंने जो जान भी लिया है वो किस विधि से जाना है? एक कवि के रूप में क्या मैंने उसे अपनी अनुभूति से जाना है या मैंने किसी विमर्श से, किसी विचार से, किसी दर्शन से, किसी सम्प्रदाय से, किसी राजनैतिक चिंतक से जाना है और उसे मान लिया है! उसे मानने में कोई आपत्ति नहीं है पर क्या वह सत्य मेरी अनुभूति से उपजता है? क्या मैं अपनी कविता को बिना किसी स्थूल अर्थ में रिड्यूस किए सम्प्रेषित कर सकता हूँ? क्या वो होती है? अगर वह नहीं होती है, तो कहीं न कहीं कोई समस्या है!
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