इस नये घर में
सब कुछ है
वह सभी साज़ो-सामान
जो बाज़ार में उपलब्ध है
तमाम सुख सपनों के
आश्वासानों के साथ।

इस घर में नहीं है
एक अदद आँगन
जिसके रहते
खुली हवा
खिलखिलाती धूप
बारिश की नटखट बूँदें
वाचाल सूखे पत्ते
बहुरंगी आवारा फूल
इठलाती तितलियाँ
चहचहाती चिड़ियाँ
जो चली आती थीं
बेरोक टोक।

इस नये घर में
वह पुराने वाला आसमान
सिरे से नदारद है
जिस पर मैं लिखा करता था
तारों की लिपि में
अपने सपनों के गीत

इस नये घर में
चारों तरफ़ पसरा है
बाज़ार ही बाज़ार,
जिसकी भीड़भाड़ भरी
गहमागहमी में
अक्सर मैं
अपनापन और घर
ढूँढता रह जाता हूँ।

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निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : [email protected]

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