समय के साथ
परिपक्व हो जाता है
प्रेम,
यह स्थापित करता है
आसमान में
अपना एक अलग चाँद
जो घटता-बढ़ता नहीं
दिन के हिसाब से

यह समुद्र तट
की लहरों की तरह
नहीं होता उग्र
और नहीं टकराता अपना सर
अनायास ही चट्टानों से

धीरे-धीरे
बढ़ती है इसकी गहराई
और हो जाता है
शान्त व स्थिर
जैसे समुद्र का मध्य भाग

मगर इस स्थिर भाग में
भी उठता है
ज्वार-भाटा
जब आता है चाँद
एकदम सीध में
यह बढ़ता है चाँद की ओर
प्रबल वेग से
फिर हो जाता है धराशायी
अपने आप ही
दुहराने के लिए
समान प्रक्रिया
अनवरत

यह क्षणिक आवेगपूर्ण प्रक्रिया
निकाल कर फेंक देती है
समुद्र का सारा कचरा
यह मददगार बनती है
नाविकों के लिए,
ताकि वे आसानी से उतार सके
किनारों पर अपनी नाव
यह देकर जाती है मछुआरों को
मछलियों की सौगात
जिनसे भरता है उनका पेट

मगर नहीं लाती कभी भी
सुनामी या तूफानी बारिश
नहीं उजाड़ती किनारों पर बसी हुई
कच्ची बस्तियों को
क्योंकि निर्माण है
प्रेम की नियति
विध्वंस नहीं।

©-उन्मुक्त

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दीपक सिंह चौहान 'उन्मुक्त'
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसम्प्रेषण में स्नातकोत्तर के बाद मीडिया के क्षेत्र में कार्यरत.हिंदी साहित्य में बचपन से ही रूचि रही परंतु लिखना बीएचयू में आने के बाद से ही शुरू किया ।

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