मैं आके नहीं बैठूँगा कौवा बनकर तुम्हारे छज्जे पर
पूड़ी और मीठे कद्दू की सब्ज़ी के लालच में
टेरूँगा नहीं तुम्हें
न कुत्ता बनकर आऊँगा तुम्हारे द्वार
रास्ते की ठिठकी हुई गाय
की तरह भी तुम्हें नहीं ताकूँगा
वत्सल उम्मीद की हुमक के साथ

मैं तो सतत रहूँगा तुम्हारे भीतर
नमी बनकर
जिसके स्पर्श मात्र से
जाग उठता है जीवन मिट्टी में
कभी-कभी विद्रूप से भी भर देगी तुम्हें वह
जैसे सीलन नयी पुती दीवारों को
विद्रूप कर देती है—
ऐसा तभी होगा जब तुम्हारी इच्छाओं की इमारत
बेहद चमकीली और भद्दी हो जाएगी,
पर मैं रहूँगा हरदम तुम्हारे भीतर पक्का।

वीरेन डंगवाल की कविता 'हम औरतें'

Book by Viren Dangwal:

वीरेन डंगवाल
वीरेन डंगवाल (५ अगस्त १९४७ - २८ सितंबर २०१५) साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी कवि थे। बाईस साल की उम्र में उन्होनें पहली रचना, एक कविता, लिखी और फिर देश की तमाम स्तरीय साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे। उन्होनें १९७०-७५ के बीच ही हिन्दी जगत में खासी शोहरत हासिल कर ली थी। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। उनकी ख़ुद की कविताओं का भाषान्तर बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया जैसी भाषाओं में प्रकाशित हुआ है।