Poems by Varun Ahirwar

दिक्कत

वे कहते हैं
उन्हें दलितों से कोई दिक्कत नहीं है।
मैं सहमत हूँ।
क्योंकि उन्हें वाक़ई दलितों से कोई दिक्कत नहीं है।
क्योंकि उन्हें दिक्कत दलितों के
न होने से है।
जैसे रुखड़ी को दिक्कत है
ज्वार या बाजरा के न होने से
जैसे डोडर को दिक्कत है
सूरजमुखी के न होने से
ठीक उसी तरह जैसे किसी भी परजीवी को दिक्कत है,
उत्पादक फ़सल के न होने से।

अर्थशास्त्र

हमारे सामने कितने सारे वाद हैं
जातिवाद, सामंतवाद
फ़ासीवाद, आतंकवाद
पूँजीवाद, समाजवाद
और भी बहुत कुछ
कितने ही धर्म हैं
कितने दंगे और फ़साद हैं
कितने तरह के शस्त्र
कितने तरह के शास्त्र हैं
सब एक-दूसरे से बिल्कुल अलग
पर असलियत में
ये सब अर्थशास्त्र हैं
एक दूसरे से बिल्कुल अलग।

वे आँखें नई नई

अलसाई काली-काली सपनों में घुली हुई,
माह सरीखी खिली हुई वे आँखें नई-नई।

वादे जैसे कहमुकरियाँ
बातें बूझ पहेली सारी
तुनुकमिज़ाजी गहना उसका
यही हुए हैं हम पर तारी

इंशा की ग़ज़लों के जैसी
चंचल और निराली है
अपनी लगती है वो जैसे
खुसरो की कव्वाली है

गोरख के गीतों को उसने
अपना साज़ बनाया है
वो मतवाली भगतसिंह के,
रास्तों पर चली हुई

माह सरीखी खिली हुई वे आँखें नई-नई।
अलसाई काली-काली सपनों में घुली हुई।

अमावस का चाँद

पूर्णिमा से चाँद घटते-घटते
अमावस तक दिखना बन्द कर देता है।
पर बस दिखना बन्द करता है।
अपना अस्तित्व नहीं खोता।
हम पूरी तरह से आश्वस्त होते हैं,
उसके मौजूद होने को लेकर
और एक बार फिर आकाश में
खिलने के बारे में
धीरे-धीरे ही सही…
और हम इन्तज़ार करते हैं,
उस पूरे चाँद का
ये जानते हुए भी,
कि फिर एक दिन उसे खो जाना है आकाश में
अमावस के चाँद की तरह।
कुछ ऐसा ही है हमारा प्रेम भी
ठीक अमावस के चाँद की तरह।

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