यह एक अजीब बात है कि इधर साहित्यकार में शिकवों और शिकायतों का शौक़ बढ़ता जा रहा है। उसे शिकायत है कि गवर्नर और मुख्यमंत्री उसे पहचानते नहीं, शासन उसे मान्यता नहीं देता, या देता है तो तब, जब वह क़ब्र में पाँव लटकाकर बैठ जाता है। लेकिन समझ में नहीं आता कि लेखक के लिए यह ज़रूरी क्यों है कि वह इन बातों को महत्त्व दे। आख़िर शासन ने तो उससे नहीं कहा था कि वह लेखक बने। वह अपनी अदम्य सम्वेदनशीलता के कारण लेखक बनता है, अभिव्यक्ति की दुर्निवार पीड़ा उसे क़लम उठाने के लिए विवश करती है। इस प्रक्रिया में शासन या समाज कहाँ बीच में आता है।

फिर शासन से मान्यता का अर्थ है—शासन से समझौता। और समझौता हमेशा आदमी को कहीं न कहीं कमज़ोर करता है। फिर यह एक विरोधाभास ही तो है कि आप जिस शासन की आलोचना करें, उसी की स्वीकृति और मान्यता के लिए तरसें। शब्द-छल से या आत्मसम्मान की दुहाई देकर इसका औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। बात असल यही है कि साहित्यकार शासन की उपेक्षा करके नहीं चल पाते, जबकि शासन साहित्य की उपेक्षा करके धड़ल्ले से चलता है।

जो लोग यह समझते हैं कि अमुक साहित्यकार का सम्मान करके शासन गद्गद हो गया है—वे बड़े मासूम हैं। उन्हें यह बताने से कोई फ़ायदा नहीं कि शासन किसी लेखक या साहित्यकार को नहीं जानता। वह तो इस बहाने अपने आपको सम्मान देता है, अपनी यशोभूमि का विस्तार करता है और अपने मुकुट में एक और रत्न जड़ लेता है।

व्यक्तिगत रूप से मैं इन अभिनंदनों के ख़िलाफ़ हूँ। एक तो इसलिए कि लेखक को अपनी पीठ पर भरसक कोई ऐसा अहसान नहीं लादना चाहिए जो उसकी स्वतंत्रता में बाधक बने, और दूसरे इसलिए कि इससे लेखक को एक वर्ग के रूप में दूसरे वर्गों पर तरजीह मिलती है जो कि एक ग़लत बात है। आख़िर क्यों शासन उस क्लर्क का अभिनंदन न करे जिसने अपने जीवन के तीस अमूल्य वर्ष बड़ी निष्ठापूर्वक उन फ़ाइलों में झोंक दिए जिनसे उसका कोई पारिवारिक रिश्ता नहीं था। इसी प्रकार सुनार, बढ़ई, मोची, मज़दूर और मेहतर, हरेक की अपनी एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक भूमिका है। आख़िर उनका अभिनंदन क्यों नहीं होता?

फिर लेखक में ऐसे कौन-से सुर्ख़ाब के पर लगे हैं कि वह आम आदमी से अलग है। क्यों वह शासकीय और सार्वजनिक सम्मान की कल्पना करता है? क्यों वह राज्यपालों या मंत्रियों की परिचय परिधि में आना चाहता है? (मैंने तो किसी राज्यपाल को किसी लेखक के सान्निध्य की इच्छा करते हुए नहीं देखा) क्यों वह चाहता है कि सत्ताधारी उसकी लेखनी से परिचित हों और उससे सामान्य लोगों की अपेक्षा भिन्न प्रकार का व्यवहार करें? आख़िर लेखक भी तो प्रोफ़ेसर, वकील, चित्रकार और मूर्तिकार आदि की तरह ही एक वर्ग है और इस व्यावसायिक युग में उन्हीं की तरह अपने ढंग से अपना पेट पालता है। अलबत्ता उसे यह अतिरिक्त सुविधा ज़रूर प्राप्त है कि वह अपने थोथे से थोथे और घटिया से घटिया अहम को भी शानदार अभिव्यक्ति दे सकता है।

पिटकर आने के बाद वह जोशीली कविताएँ लिख सकता है या अपने पौरुष और बल का बखान कर सकता है। सर्वत्र उपेक्षा सहकर भी वह ‘शिमला समझौते में मेरा विनम्र योगदान’ जैसा निबंध लिख सकता है या डाकुओं के समर्पण का श्रेय अपनी कल्पना में लूट सकता है। वह एक लेख में दस बार अपना नाम ठूँस सकता है और उस बनिए की ख़बर भी ले सकता है जो उसके घर रोज़ पैसों का तकाज़ा करने आता है। वह उस अफ़सर को धपिया सकता है, जिसने उसे कमरे में घुसने की इजाज़त नहीं दी थी और उस मिनिस्टर को क़लम के छींटे मार सकता है जिसने उसका नाम सुनकर चेहरे पर परिचय का भाव नहीं आने दिया था। परंतु अन्य वर्गों के व्यक्ति ऐसी स्थितियों को भी ज़्यादा से ज़्यादा चार दोस्तों में कह-सुन लेते हैं अथवा ख़ून का-सा घूँट पीकर रह जाते हैं।

आप लेखक के नाते अपने ‘मैं’ को झुनझुने की तरह बजाते हैं, मित्रों की प्रशंसा और शत्रुओं की निंदा करते हैं, साहित्य के नाम पर दिल की भड़ास निकालते हैं और यह भी आशा करते हैं कि दुनिया आपको पूजे, लोग आपको चाहें, शासन आपको मान्यता दे।

मैं इसीलिए इसका विरोध करता हूँ कि मेरी कल्पना के वर्गविहीन समाज में यह लेखक कहीं फ़िट नहीं बैठता। नई दुनिया के 15 अक्तूबर के लेख में राजभवन की जिस गोष्ठी का ज़िक्र किया गया है, उसमें इत्तिफ़ाक़ से मैं भी था। इत्तिफ़ाक़ से इसलिए कि मुझे पता नहीं था कि ऐसा निर्णय किसी गोष्ठी में लिया गया है। दरअसल, सिद्धांत नहीं बल्कि अपनी सुविधा के तहत मैं किसी गोष्ठी में आता-जाता नहीं। पर अपने राज्यपाल श्री सत्यनारायण सिंह की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक सूझ और सुरुचि की मुझे चूँकि पूरी-पूरी जानकारी है इसलिए मैं लेखकों की (हालाँकि लेखक वहाँ कम थे) उस भीड़ में उपस्थित था जो उस दिन राजभवन में एकत्र हुई। मैंने वह दृश्य देखा है जब लेखक एक-दूसरे को धकेलते और धकियाते हुए हॉल में खड़े राज्यपाल महोदय के निकट पहुँचने के लिए एड़ियाँ रगड़ रहे थे। लेकिन इसमें राज्यपाल महोदय की कोई प्रेरणा नहीं थी।

उसी दिन, उसी हॉल में, मैंने कुछ ऐसे लेखकों को भी देखा जो इस सब को दर्शक के तटस्थ भाव से देख रहे थे बल्कि इस ओर सबसे पहले मेरा ध्यान डॉ० प्रभुदयाल अग्निहोत्री ने ही आकर्षित किया। कुछ और भी लेखक थे जो एक साहित्यिक कार्यक्रम के भ्रम में उस भीड़ में घिर जाने पर दुखी थे और शिष्टाचार निभाते हुए पहला मौक़ा मिलते ही वहाँ से चले आए।

इस अत्यंत सामान्य-से कार्यक्रम पर भी लेखकों की प्रतिक्रियाएँ भिन्न थीं। एक लेखक ने निमंत्रण-पत्र पाकर अपने धर्म संकट पर लेख लिख दिया, मगर एक दूसरे लेखक कह रहे थे कि उन्हें निमंत्रण-पत्र नहीं मिला और वे इस पर ज़रूर लिखेंगे। एक तीसरे लेखक उन चमचों पर लिखने की घोषणा कर रहे थे जो ऐसे कार्यक्रमों में सबसे आगे पहुँच जाते हैं और एक अन्य लेखक इस बात से दुखी थे कि साहित्यकारों को दलालों की मार्फ़त राज्यपाल से मिलना पड़ता है।

मेरी समझ में नहीं आता कि यदि राज्यपाल ने लेखकों से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो कौन-सा क़हर टूट पड़ा और क्यों इस एक ज़रा-से प्रसंग पर लेखकों की पीड़ा का कोई अंत नहीं, यानी कि लेखक यह मानता है और मानकर चलता है कि सत्ता के इर्द-गिर्द ही उसकी सत्ता है या यह कि उससे जुड़कर वह कहीं का नहीं रह जाएगा। यों उसमें सत्ता से कटे रहने और जुड़े रहने का अजीब दुविधायुक्त भ्रम है। इसके एक छोर पर हैं मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर और बच्चन और दूसरे पर निराला, रेणु और मोहन राकेश। दोनों ही लेखक हैं।

पर इस भीड़ में लेखक की पहचान का ही क्या मापदंड हो सकता है? मैं जानता हूँ, भोपाल में एक मध्य प्रदेश लेखक संघ है। भोपाल के अनेक प्रतिष्ठित और परिचित लेखक उसके सदस्य नहीं हैं और अनेक ऐसे लोग उसके सदस्य हैं जिन्हें लेखक के रूप में हिंदी-संसार क़तई नहीं जानता। यही हाल हिंदी साहित्य सम्मेलन का है, पर इसमें दोष इन संस्थाओं का नहीं बल्कि उन लेखकों का है जो इनकी आलोचना करते-करते इनमें पदाधिकारी बनकर घुसपैठ करने की इच्छा रखते हैं।

एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाएगी। मध्य प्रदेश की शासन साहित्य परिषद में दसियों वर्षों तक कोई चिराग़ बालने वाला भी नहीं था। एक बड़ा-सा अफ़सर उसका सचिव होता था और वह अफ़सर ज़रूरी कामों में फँसा रहता था। परंतु जब एक दूसरी श्रेणी का अधिकारी, जो संयोग से लेखक भी है, उसका सचिव बन गया और परिषद के कार्यकलापों को साहित्यिक दिशा देने की कोशिश करने लगा तो भोपाल के साहित्य जगत् में हलचल मच गई। कई लेखकों की सदियों पुरानी नींद अचानक टूट गई और कई लेखकों को परिषद की महत्त्वपूर्ण भूमिका और कर्तव्य याद आने लगे।

दरअसल बात यह है कि लेखक किसी दूसरे लेखक को भौतिक दृष्टि से ज़रा-सी भी सम्पन्न स्थिति में नहीं देख सकता। अभी एक अफ़वाह न जाने कैसे मेरे बारे में फैल गई कि शासन ने दुष्यन्त कुमार को हिंदी की देखभाल के लिए नियुक्त किया है। चुनाँचे लेखक मित्रों में यहाँ से वहाँ तक मातम छा गया। किसी ने मुझे हिंदी का दरोग़ा कहना शुरू किया, तो किसी ने इंस्पेक्टर। और सच मानिए, मैं इस झूठ का खंडन न करता यदि मेरे मित्रों की यह तकलीफ़ मेरे लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त न हो गई होती। अगर यों होता कि कनछेदीलाल श्रीवास्तव इस काम के लिए नियुक्त किए गए हैं, तब उन्हें राहत मिलती, क्योंकि न वे कनछेदीलाल के हिंदी ज्ञान से परिचित हैं और न कनछेदीलाल लेखक के रूप में जाना-माना जाता है।

ख़ैर, बात हिंदी की नहीं, हिंदी लेखकों के दोमुँहेपन की हो रही थी। वह (यानी हिंदी का लेखक) एक साँस में विरोध करता है और दूसरी में समर्पण। एक तरफ़ वह शासन (और उसके छोटे-छोटे पुर्ज़ों तक) को कोसता है और उनकी उपेक्षा करने का दिखावा करता है और दूसरी तरफ़ दूसरे प्रदेशों का हवाला देकर यह सिद्ध करना चाहता है कि वहाँ नेता साहित्यकारों का आदर करते हैं। क्या इससे यह ध्वनित होता है कि वहाँ लेखकों और नेताओं में ऐसा कॉन्ट्रेक्ट है कि हम आपको गाली दें और आप हमारा आदर करें? जाने क्यों लेखक के रूप में हम नेताओं द्वारा आदर और सम्मान के बहुत भूखे हैं? क्या दूसरे प्रदेशों का लेखक भी ऐसे तेवर अपनाता है?

हिंदी लेखकों के इस दोमुँहेपन और विरोधाभास के मेरे पास हज़ारों उदाहरण हैं। किसी ज़माने में भोपाल की म्युनिसिपैलिटी चुनिंदा लेखकों को 500 रुपए का पुरस्कार दिया करती थी, बल्कि शायद यह कहना ज़्यादा सही होगा कि दो लेखकों के बहाने वह अपने चार लगुओं-भगुओं को पुरस्कार दिया करती थी। इस स्थिति से सभी वास्तविक लेखक बहुत असंतुष्ट थे। मगर एक, जो पुरस्कारों की घोषणा के दो दिन पहले सब लेखकों द्वारा इनके बायकाट की ब-आवाज़ बुलंद घोषणा कर चुके थे, सहसा पुरस्कार की सूचना मिलते ही नमस्कार की मुद्रा में खड़े हो गए। अगले वर्ष जब वही पुरस्कार मुझे मिला तो मैंने उसे बड़े संकोच के साथ यह कहते हुए अस्वीकार किया कि “यदि मुझे विश्वास होता कि आपके निर्णायकों ने मेरी पुस्तकें पढ़ी हैं और मुझे यह पुरस्कार मेरी साहित्यिक सेवाओं के उपलक्ष्य में दिया जा रहा है तो शायद मैं एक बार इसे स्वीकार करने की सोचता, परंतु चूँकि मैं आपके निर्णायकों में से कुछ से परिचित हूँ और आपके इरादे समझता हूँ इसलिए मुझे माफ़ करें।”

मैं काफ़ी ख़तरे उठाकर आत्म-प्रचार का यह सुख पहली बार इसलिए दे रहा हूँ कि कुछ लेखकों ने साहित्यिक जनता में यह भ्रम फैला रखा है कि शासकीय तंत्र में फँसा हुआ लेखक बहुत निरीह होता है और हम उसकी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं। पर मुझे ऐसी परतंत्रता का कभी अहसास नहीं हुआ। मैंने लेखक और सरकारी नौकर दोनों को अलग-अलग करके देखा है और जैसा कि हरिशंकर परसाई ने ‘शंकर्स वीकली’ में लिखा भी था, जब कवि जाग्रत होता है तो अफ़सर ड्यूटी पर चला जाता है। दफ़्तर के बाहर शासकीय तंत्र में फँसे अन्य अनेक लोगों की तरह मैं भी बराबर, बड़ी एहतियात से अपने कवि की भावनाओं की रक्षा करता आया हूँ—फिर वे चाहे शासन को रुचें या नहीं रुचें।

एक बार जब लौहपुरुष पं० द्वारकाप्रसाद मिश्र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो मैंने ‘बस्तर गोलीकांड पर एक प्रतिक्रिया’ शीर्षक कविता लिखी थी जो ‘कल्पना’ के सम्पादकों ने एक टिप्पणी के साथ प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित की थी। लोगों ने बहुत डराया—पर बक़ौल परसाई, तब तक मेरा कवि ड्यूटी पर जा चुका था। सुना है, पं० मिश्र के पास जब उसकी कटिंग पहुँची तो उन्होंने कहा, “विधानसभा में इतनी गालियाँ मिली हैं तो क्या एक कवि अपना विरोध भी व्यक्त नहीं कर सकता?”

मगर हिंदी के लेखक की दिक्कत यह है कि वह सिद्धांत और नीतियों से ज़्यादा व्यक्ति का विरोध करता है। मेरा सुझाव यह है कि हम विरोध के सहारे पहचाने जाने की नीति त्यागकर एकात्मकता के सहारे आगे बढ़ें। राजनीति और राजनीतिज्ञों से, सत्ता और शासकों से डरने या चौंकने की ज़रूरत नहीं और न उन्हें चौंकाने की ही ज़रूरत है। ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की है कि हम लघुता के ‘कॉम्पलेक्स’ से निकलें और राजनीतिज्ञों को साहित्य में आने दें और ख़ुद राजनीति में जाएँ। हम अपनी सामाजिक चेतना पर ख़ुश हो सकते हैं पर इस तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते कि राजनीतिज्ञ की जड़ें समाज में दूर-दूर तक होती हैं। जिस दिन साहित्यकार की जड़ें जनता में उतनी गहरी होंगी, सत्ता ख़ुद नमन करने उसके पास आएगी।

[‘नई दुनिया’, इंदौर के 19 नवबर, 1972 अंक में प्रकाशित]

Book by Dushyant Kumar:

Previous articleमनुष्यता की होड़
Next articleअरे कहीं देखा है तुमने
दुष्यन्त कुमार
दुष्यंत कुमार त्यागी (१९३३-१९७५) एक हिन्दी कवि और ग़ज़लकार थे। जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था। हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। इस समय सिर्फ़ ४२ वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here