सन 1919। वह इटली में रेल से सफर कर रहा था। पार्टी हेडक्वार्टर से वह मोमजामे का एक चौकोर टुकड़ा लाया था, जिस पर पक्के रंग से लिखा हुआ था कि बुदापेस्त में इस साथी ने “गोरों” के बहुत अत्याचार सहे हैं। साथियों से अपील है कि वे हर तरह से इसकी मदद करें। टिकट की जगह वह इसे ही इस्तेमाल कर रहा था। वह युवक बहुत शर्मीला और चुप्पा था। टिकट बाबू उतरते, तो अगले को बता जाते। उसके पास पैसा नहीं था। वे उसे चोरी-छिपे खाना भी खिला देते।

वह इटली देखकर बहुत प्रसन्न था। बड़ा सुंदर देश है, वह कहता। लोग बड़े भले हैं। वह कई शहर और बहुत-से चित्रों को देख चुका था। गियोट्टो, मसाचियो और पियरो डेला फ्रांसेस्का की प्रतिलिपियाँ भी उसने खरीदी थीं, जिन्हें वह “अवंती” के अंक में लपेटे घूम रहा था। मांतेगना उसे पसंद नहीं आया।

वह बोलोना आया, तो मैं उसे रोमाना साथ ले गया। मुझे एक से मिलना था। वह सफर मजे का रहा। सितंबर शुरू के खुशनुमा दिन थे। वह मगयारी था और बहुत झेंपूँ। होर्थी के लोग उससे अच्छी तरह पेश नहीं आए थे। कुछ जिक्र उसने किया था। हंगरी के बावजूद, उसका विश्वास एक पूरी विश्वक्रांति में था।

“इटली में आंदोलन का क्या हाल है?” उसने पूछा।

“बहुत बुरा!” मैंने कहा।

“पर यहाँ चलेगा खूब!” वह बोला, “यहाँ सब कुछ है। यही अकेला देश है, जिसके बारे में किसी को संदेह नहीं है। सब यहीं से शुरू होगा!”

मैं कुछ नहीं बोला।

बोलोना में वह विदा हुआ। वहाँ से रेल से वह मिलान के लिए गया, मिलान से आओस्ता और वहाँ से उसे पैदल-पैदल दर्रा पार करके स्विटजरलैंड पहुँचना था। मिलान के श्री व श्रीमती मांतेगना का जिक्र मैंने किया। “उन्हें छोड़िए।” उसने झेंपते हुए कहा कि वे उसे जँचे नहीं। मिलान के साथियों और खाना खाने की जगहों के पते मैंने उसे दे दिए। उसने मुझे धन्यवाद दिया, पर उसके दिमाग में दर्रा पार करके आगे जाने की बात समाई हुई थी। मौसम ठीक रहते-रहते वह दर्रा पार कर लेना चाहता था। उसके बारे में मुझे अंतिम खबर यही मिली कि स्विसों ने साइन के पास पकड़कर उसे जेल में डाल दिया है।

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