‘Aag’, a poem by Poonam Sonchhatra

आग… बेहद शक्तिशाली है
जला सकती है शहर के शहर
फूँक सकती है जंगल के जंगल

आग… नहीं जानती
सजीव-निर्जीव का भेद

वह नहीं जानती संज्ञा के प्रकार भी
उसे नहीं आता
व्यक्ति वाचक और जाति वाचक संज्ञा में अंतर करना

और तो और
आग…. भेद नहीं कर पाती
अपने-पराए, बड़े-छोटे, अमीर-ग़रीब, स्त्री-पुरुष में भी

उसे तो हिन्दू-मुस्लिम का भेद तक नहीं पता

वह ये भी नहीं जानती
कि कौन किस विचारधारा का समर्थन करता है

आग की समभाव दृष्टि में हर ख़ास भी आम ही है
यहाँ तक कि उसे लगाने वाला भी

एक बात और
आग लगाने से सिर्फ़ राख पैदा होती है…

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