बीता हुआ और बीत रहा हर एक क्षण स्मृति बनता चला जाता है। कुछ स्मृतियाँ सिर्फ़ स्मृतियाँ न रहकर अंतस पटल पर शिलालेख-सी अमिट हो जाती हैं। बात एक सुबह की है— यूँ तो आजकल मेरे लिए सुबह उठना थोड़ा कष्टप्रद होता है, किन्तु उस दिन एक सहजता-सी थी। उठना, तैयार होना और नाश्ता करके नियत स्थान पर पंद्रह मिनट पहले पहुँच जाना, शायद ये मेरे मन में मातृभाषा हिंदी के प्रति अगाध श्रद्धा का ही परिणाम रहा होगा। मैं रायबरेली विकास प्राधिकरण के कार्यालय के समीप स्थित हिंदुस्तान अख़बार के कार्यालय के पास टहलता हुआ सबके आने की प्रतीक्षा करने लगा, जहाँ से हमें इकट्ठा होकर आगे जाना था। कुछ ही देर में सब आ गए, सारा माहौल और तैयारियाँ किसी उत्सव का दृश्य बना रही थीं, गुलाब के सौ फूलों के साथ ब्रेड पकौड़ों के आस्वादन के बाद हमारी रवानगी हुई।

मुझे जिस कार में जगह मिली उसमें अमूमन सभी मेरी ही पीढ़ी के थे, सो कुछ चुहल, कुछ हँसी-ठिठोली रास्ते-भर चलती रही। हालाँकि उस सब में मेरी सहभागिता उतनी ही थी, जितनी कि किसी समय नाटकों के मंचन में प्रयोग किए जाने वाले परदे की होती थी। प्रत्यक्ष रूप में शांत, स्थिर, लेकिन एक-दूसरे स्तर पर किन्ही दूसरे अर्थों में अपने आप में काफ़ी कुछ समेटे। शहर को छोड़ने के बाद थोड़े संकरे और ख़राब कहे जाने लायक़ रास्तों से गुज़रते हुए मुझे याद आ रही थी अपने गाँव की, जहाँ जाते हुए भी तो ऐसे ही सरपतों के जंजाल, रास्ते को मानो एक गुफा का रूप देते थे। रास्ते में घोड़ागाड़ी के साथ ही साथ एक किसान को बैलों से खेत की जुताई करते हुए देखकर मुझे अनुमान हो गया था कि आगे कुछ अलक्षित, कुछ अपरिचित होने वाला था, और फिर कुछ ही देर में हम सब रायबरेली से लगभग बावन किमी दूर पश्चिम में गंगा के तट पर बसे हुए एक छोटे किन्तु अपने नाम की सार्थकता को सिद्ध करते गाँव दौलतपुर में थे। हम आचार्य श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के गाँव में थे।

गाड़ी महावीर चौरा के सामने रुकी। महावीर चौरा से ही लगा हुआ स्मृति मंदिर था और स्मृति मंदिर से लगी हुई एक छोटी-सी जगह, जिसमें आचार्य जी की एक प्रतिमा, एक छोटा पुस्तकालय, एक हैंडपम्प और एक कुआँ जो कि ढँक दिया गया था, मौजूद थे। इन सबके पीछे की ओर एक तालाब था और सामने की ओर रास्ते के पार आचार्य जी का पैतृक आवास, जो कि ढह चुका था और महावीर स्मारक समिति के प्रयासों से उसको समतल करके एक घर बना दिया गया था और बाक़ी जगहों से थोड़ी ऊँचाई पर था। मैं उसी अपेक्षाकृत ऊँची जगह से स्मृति मंदिर, महावीर चौरा, उनके पीछे का तालाब, पेड़-पौधों और पूरी प्रकृति को निहार रहा था। दिनकर की पंक्तियाँ ‘गुदड़ी में रखती चुन-चुनकर बड़े क़ीमती लाल’ सार्थक सिद्ध हो रही थीं। प्रतिभा या कि एक जिजीविषा से भरा हुआ अंकुर अपने रास्ते तलाश लेता है; आचार्य जी वहाँ से पैदल रायबरेली पढ़ने के लिए जाते थे। वहाँ की एक और सुखद अनुभूति थी, वहाँ की शांति। मैं समझता हूँ कि शहरों की भीड़ से, शोर से, माइग्रेन और तनाव से जूझते लोगों को एक बार ऐसे ही सुदूर बसे किसी गॉंव में ज़रूर जाना चाहिए, यहाँ जीवन का रहस्य बिखरा पड़ा है, आपको सिर्फ़ उसे बीनना और सँजो लेना है।

एक चिर-परिचित आवाज़ से विचार शृंखला टूटी। हमारे अगुआ श्री गौरव अवस्थी जी ने हम सबको बुलाया। चूँकि राष्ट्रीय फ़ैशन तकनीकी संस्थान तथा रेयान इंटरनेशनल स्कूल से आने वाली टोली अभी नहीं पहुँची थी तो हमने दौलतपुर का मुआयना करना शुरू कर दिया। सबसे पहले हम दसेक लोग आचार्य जी की प्रतिमा के पास एकत्रित हुए और वहाँ के ग्राम प्रधान तथा ‘हिंदुस्तान’ के स्थानीय सम्वाददाता से मिलना हुआ। उन दोनों लोगों में उत्साह सहज ही देखा जा सकता था। गुलाब की एक माला मँगवायी गयी और आचार्य जी के माल्यार्पण का सौभाग्य मुझे मिला। मेरे लिए इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता था और फिर फ़ोटो खींचने-खिंचाने का सिलसिला भी शुरू हो गया। जिजीविषा के रेखाचित्र में जिज्ञासा रंग भर देती है, और हममें दौलतपुर की एक-एक चीज़ देखने, जान लेने की जिज्ञासा थी।

हमने सबसे पहले देखा महावीर चौरा—हनुमान जी का एक मंदिर, जिसमें दीवारें नहीं थीं। केवल पिलर के प्रयोग से छत दी गयी थी और तालाब के छोर पर हनुमान जी की एक मूर्ति स्थापित की गयी थी। बचा हुआ सारा स्थान बैठने, पूजा करने के दृष्टिकोण से उपयुक्त था और यह आचार्य जी के कमरे के बिलकुल सीध में बनाया गया था। इसकी कहानी यह थी कि इसको आचार्य जी की पत्नी ने आचार्य जी को समर्पित किया था। चूँकि महावीर नाम था आचार्य जी का सो इस मंदिर का नाम पड़ा महावीर चौरा। बात धीरे-धीरे पुरानी हो चली। आचार्य जी की पत्नी की एक आदत थी कि वो नित्य गंगा स्नान करने जाती थीं। एक दिन ऐसे ही गंगा स्नान करते हुए उनका पैर फिसला और वो गंगा में समाहित हो चलीं, जिनकी स्मृति में आचार्य जी ने एक ऐसा कार्य किया जो कि उन्हें नारी चेतना का इतिहास पुरुष बना देता है। उन्होंने एक मंदिर का निर्माण करवाया और उसको नाम दिया स्मृति मंदिर। इस मंदिर में उन्होंने सफ़ेद संगमरमर की सरस्वती और लक्ष्मी की मूर्तियों को दोनों ओर स्थापित करते हुए अपनी पत्नी की मूर्ति स्थापित की, जिसका उस वक़्त पुरज़ोर विरोध भी हुआ।

अब बारी थी 1914 में आचार्य जी द्वारा बनवाए गए प्राथमिक विद्यालय को देखने की। इंजीनियरिंग का विद्यार्थी होने के कारण भवन का स्थापत्य मुझे स्तब्ध करने वाला लगा। हमारे यहाँ ठोस यांत्रिकी नामक एक विषय का अध्ययन-अध्यापन किया जाता है, जिसमें ठोस वस्तुओं पर लगने वाले बल तथा उस वस्तु की बल के प्रति प्रतिरोध की क्षमता आदि पर विचार किया जाता है। मैं आश्चर्य में था कि विद्यालय में बीम को ठोस यांत्रिकी के अनुसार बंकन आघूर्ण (बेन्डिंग मोमेंट) के आधार पर बनाया गया था। सामान्य शब्दों में कहें तो मज़बूती अपने उत्कृष्ट स्तर पर थी। बच्चों से और वहाँ के अध्यापकों से थोड़ी बहुत बातचीत हुई और बातों ही बातों में पता चला कि दौलतपुर में आचार्य जी की जन्मशती पर एक कार्यक्रम में बहुत अधिक संख्या में लोग आए थे और चार दिन तक कार्यक्रम चलता रहा था। महादेवी वर्मा भी उन सब में एक थीं और उन्होंने उस समय एक ग्राम पंचायत भवन का निर्माण करवाया था। यहाँ से हमारी टोली पंचायत भवन की ओर मुड़ गयी। वहाँ पहुँचकर पता चला कि उसमें अब एक आयुर्वेदिक औषधालय चल रहा था।

इतने सब में अब रेयान स्कूल तथा राष्ट्रीय फ़ैशन तकनीकी संस्थान के निदेशक समेत सभी लोग पहुँच गए। आचार्य जी की प्रतिमा को पुष्पांजलि अर्पित करने के बाद उन सभी ने भी गाँव का भ्रमण किया और तत्पश्चात सब आचार्य जी के पुनर्निर्मित घर के बग़ल में लगे हुए तम्बू में एकत्रित हुए। भीड़ अधिक थी सो कुछ लोग दूसरे घरों की दीवार की छॉंव में बैठ गए— कुछ कहीं, कुछ कहीं और कार्यक्रम शुरू हुआ। कार्यक्रम के बारे में सोचता हूँ कि क्या लिखा जाए तो ‘कीर्ति दीप्ति शोभा थी नचती, अरुण किरण-सी चारों ओर’—कामायनी की ये पंक्तियाँ सामने खड़ी हो जाती हैं कि इससे बेहतर ढंग क्या होगा उस पूरे के विवरण के लिए।

आचार्य पथ नामक पत्रिका का वितरण हुआ और कुछ किताबें जो गौरव सर अपने साथ ले आए थे उनका भी वितरण हुआ।

ऐसा एक कार्यक्रम भी उन हज़ार हिंदी भाषा के लिए किए गए कार्यों से बेहतर है कि जिनमें चालीस साल से कम उम्र का कोई नहीं होता। कुछ लोग आपस में मिल लेते हैं, तू मेरी जय, मैं तेरी जय और फिर शाम को उसी तरह वैसे ही अपने आप में लग जाते हैं। ऐसे ही विचारों के साथ मैं लौट रहा था, गाड़ी चल रही थी।

प्रसाद चौबे
जन्म- जौनपुर, उत्तर प्रदेश। स्वतंत्र लेखन। संपर्क- [email protected] मो० +917379584502