‘Meri Bhasha’, a poem by Harshita Panchariya
जब तय किए जाने लगे मानक
भाषा के आधार पर श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता के
तो मैं सिर्फ़ इतना समझी कि
सभ्य और असभ्य के मध्य की दूरी
एक भाषा तय करती है।
असभ्य से सभ्य बनाने की प्रक्रिया
एक माँ तय करती है
नदी, मिट्टी और भाषा पर्याय रहे हैं
मेरे लिए माँ के…
समय के साथ धीरे धीरे
माँ का सिकुड़ना
इस बात का प्रमाण
क़तई नहीं था
कि वह प्रयोगवादी
या परिवर्तनीय नहीं है
वह तो बस रक्तरंजित
अपनी ही देहरी पर पड़ी थी
वेदना से पूर्ण।
वह जवाब देना चाहती है
उन प्रतिरोधियों को
जिनका मानना है
बाँझ होती भाषा
जन्म नहीं दे सकती
किसी नयी सभ्यता को…
तो सुनो,
दुनिया का सबसे विषम कार्य
अपनी माँ को जन्म देना है
और मेरी भाषा….
आज… अभी
तुम्हें स्वयं में पुनर्जीवित करती हूँ
क्योंकि
जैसे मातृत्व से बड़ा सौभाग्य कुछ नहीं है
वैसे ही भाषा से अच्छी माँ कोई नहीं है।
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