वह बाज़ार की भाषा थी
जिसका मैंने मुस्कुराकर
प्रतिरोध किया

वह कोई रेलगाड़ी थी जिसमें बैठकर
इस भाषा से
छुटकारा पाने के लिए
मैंने दिशाओं को लाँघने की कोशिश की

मैंने दूरबीन ख़रीदकर
भाषा के चेहरे को देखा
बारूद-सी सुलगती कोई दूसरी चीज़
भाषा ही है यह मैंने जाना

मरे हुए आदमी की भाषा
लगभग ज़ंग खा चुकी होती है
सबसे ख़तरनाक शिकार
भाषा की ओट में होता है।

रोहित ठाकुर
जन्म तिथि - 06/12/1978; शैक्षणिक योग्यता - परा-स्नातक राजनीति विज्ञान; निवास: पटना, बिहार | विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं बया, हंस, वागर्थ, पूर्वग्रह ,दोआबा , तद्भव, कथादेश, आजकल, मधुमती आदि में कविताएँ प्रकाशित | विभिन्न प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों - हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, अमर उजाला आदि में कविताएँ प्रकाशित | 50 से अधिक ब्लॉगों पर कविताएँ प्रकाशित | कविताओं का मराठी और पंजाबी भाषा में अनुवाद प्रकाशित।