‘Office’, a poem by Anubhav Bajpai

मैं देखता हूँ
ऑफ़िस के सहकर्मी पुरुषों को
देखता हूँ
उनकी आँखें
टिकी हैं
महिला सहकर्मियों के
स्तनों पर
कूल्हों पर

देखता हूँ
महिला सहकर्मियों को
पाता हूँ उनकी आँखें
टिकी हैं
कपड़ों
आकारों
शृंगारों पर

देखता हूँ
ऑफ़िस के सहकर्मियों को
सुनता हूँ
उनकी बातें
पाता हूँ
मज़ाक उड़ाते
थर्ड जेण्डर का
राजू और परविंदर का

मैं देखता हूँ
ऑफ़िस के सहकर्मियों को
सुनता हूँ
उनकी बातें
उजले तन को सराहते
काले तन को कोसते

मैं पाता हूँ ऑफ़िस में
ख़ुद को
अकेला
मूक
समर्थक
हँसता हूँ ख़ुद पर
रोता हूँ उन पर!

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अनुभव
स्वतंत्र फ़िल्मकार। इस समय एमसीयू, भोपाल से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे हैं। सम्पर्क सूत्र : [email protected]