वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह बाग के बाहर से अपने खेमे की तरफ रवाना हुए। जब खेमे में पहुँचे तो आधी रात बीत चुकी थी, मगर तेजसिंह को कब चैन पड़ता था, वीरेंद्रसिंह को पहुँचाकर फिर लौटे और अहमद की सूरत बना क्रूरसिंह के मकान पर पहुँचे। क्रूरसिंह चुनारगढ़ की तरफ रवाना हो चुका था। जिन आदमियों को घर में हिफाजत के लिए छोड़ गया था और कह गया था कि अगर महाराज पूछें तो कह देना बीमार है, उन लोगों ने एकाएक अहमद को देखा तो ताज्जुब से पूछा – “कहो अहमद, तुम कहाँ थे अब तक?”

नकली अहमद ने कहा – “मैं जहन्नुम की सैर करने गया था, अब लौटकर आया हूँ। यह बताओ कि क्रूरसिंह कहाँ है?”

सभी ने उसको पूरा-पूरा हाल सुनाया और कहा – “अब चुनारगढ़ गए हैं, तुम भी वहीं जाते तो अच्छा होता।”

अहमद ने कहा – “हाँ मैं भी जाता हूँ, अब घर न जाऊँगा। सीधे चुनारगढ़ ही पहुँचता हूँ।”

यह कह वहाँ से रवाना हो अपने खेमे में आए और वीरेंद्रसिंह से सब हाल कहा। बाकी रात आराम किया, सवेरा होते ही नहा-धो, कुछ भोजन कर, सूरत बदल, विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। नंगे सिर, हाथ-पैर, मुँह पर धूल डाले, रोते-पीटते महाराज जयसिंह के दरबार में पहुँचे। इनकी हालत देखकर सब हैरान हो गए।

महाराज ने मुंशी से कहा – “पूछो, कौन है और क्या कहता है?”

तेजसिंह ने कहा – “हुजूर मैं क्रूरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम रामलाल है। महाराज से बागी होकर क्रूरसिंह चुनारगढ़ के राजा के पास चला गया है। मैंने मना किया कि महाराज का नमक खाकर ऐसा न करना चाहिए, जिस पर मुझको खूब मारा और जो कुछ मेरे पास था सब छीन लिया। हाय रे, मैं बिल्कुल लुट गया, एक कौड़ी भी नहीं रही, अब क्या खाऊँगा, घर कैसे पहुँचूँगा, लड़के-बच्चे तीन बरस की कमाई खोजेंगे, कहेंगे कि रजवाड़े की क्या कमाई लाए हो? उनको क्या दूँगा। दुहाई महाराज की, दुहाई-दुहाई।”

बड़ी मुश्किल से सभी ने उसे चुप कराया। महाराज को बड़ा गुस्सा आया, हुक्म दिया – “क्रूरसिंह कहाँ है?”

चोबदार खबर लाया – “बहुत बीमार हैं, उठ नहीं सकते।”

रामलाल (तेजसिंह) बोला – “दुहाई महाराज की। यह भी उन्हीं की तरफ मिल गया, झूठ बोलता है। मुसलमान सब उसके दोस्त हैं। दुहाई महाराज की। खूब तहकीकात की जाए।”

महाराज ने मुंशी से कहा – “तुम जाकर पता लगाओ कि क्या मामला है?”

थोड़ी देर बाद मुंशी वापस आए और बोले – “महाराज क्रूरसिंह घर पर नहीं है, और घरवाले कुछ बताते नहीं कि कहाँ गए हैं।”

महाराज ने कहा – “जरूर चुनारगढ़ गया होगा। अच्छा, उसके यहाँ के किसी प्यादे को बुलाओ।”

हुक्म पाते ही चोबदार गया और बदकिस्मत प्यादे को पकड़ लाया।

महाराज ने पूछा – “क्रूरसिंह कहाँ गया है?”

प्यादे ने ठीक पता नहीं दिया। रामलाल ने फिर कहा – “दुहाई महाराज की, बिना मार खाए न बताएगा।”

महाराज ने मारने का हुक्म दिया। पिटने के पहले ही उस बदनसीब ने बतला दिया कि चुनारगढ़ गए हैं।

महाराज जयसिंह को क्रूर का हाल सुनकर जितना गुस्सा आया बयान के बाहर है। हुक्म दिया –

(1) क्रूरसिंह के घर के सब औरत-मर्द घंटे भर के अंदर जान बचाकर हमारी सरहद के बाहर हो जाएँ।

(2) उसका मकान लूट लिया जाए।

(3) उसकी दौलत में से जितना रुपया अकेला रामलाल उठा ले जा सके ले जाए, बाकी सरकारी खजाने में दाखिल किया जाए।

(4) रामलाल अगर नौकरी कबूल करे तो दी जाए।

हुक्म पाते ही सबसे पहले रामलाल क्रूरसिंह के घर पहुँचा। महाराज के मुंशी को, जो हुक्म तामील करने गया था, रामलाल ने कहा – “पहले मुझको रुपए दे दो कि उठा ले जाऊँ और महाराज को आशीर्वाद करूँ। बस, जल्दी दो, मुझ गरीब को मत सताओ।”

मुंशी ने कहा – “अजब आदमी है, इसको अपनी ही पड़ी है। ठहर जा, जल्दी क्यों करता है।”

नकली रामलाल ने चिल्लाकर कहना शुरू किया – “दुहाई महाराज की, मेरे रुपए मुंशी नहीं देता।” कहता हुआ महाराज की तरफ चला।

मुंशी ने कहा – “लो, लो जाते कहाँ हो, भाई पहले इसको दे दो।”

रामलाल ने कहा – “हत्त तेरे की, मैं चिल्लाता नहीं तो सभी रुपए डकार जाता।”

इस पर सब हँस पड़े। मुंशी ने दो हजार रुपए आगे रखवा दिया और कहा – “ले, ले जा।”

रामलाल ने कहा – “वाह, कुछ याद है। महाराज ने क्या हुक्म दिया है? इतना तो मेरी जेब में आ जाएगा, मैं उठा के क्या ले जाऊँगा?”

मुंशी झुँझला उठा, नकली रामलाल को खजाने के संदूक के पास ले जाकर खड़ा कर दिया और कहा – “उठा, देखें कितना उठाता है?”

देखते-देखते उसने दस हजार रुपए उठा लिए। सिर पर, बटुए में, कमर में, जेब में, यहाँ तक कि मुँह में भी कुछ रुपए भर लिए और रास्ता लिया।

सब हँसने और कहने लगे – “आदमी नहीं, इसे राक्षस समझना चाहिए।”

महाराज के हुक्म की तामील की गई, घर लूट लिया गया, औरत-मर्द सभी ने रोते-पीटते चुनारगढ़ का रास्ता पकड़ा।

तेजसिंह रुपया लिए हुए वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे और बोले – “आज तो मुनाफा कमा लाए, मगर यार माल शैतान का है, इसमें कुछ आप भी मिला दीजिए जिससे पाक हो जाए।

वीरेंद्रसिंह ने कहा – “यह तो बताओ कि लाए कहाँ से?”

उन्होंने सब हाल कहा।

वीरेंद्रसिंह ने कहा – “जो कुछ मेरे पास यहाँ है मैंने सब दिया।”

तेजसिंह ने कहा – “मगर शर्त यह है कि उससे कम न हो, क्योंकि आपका रुतबा उससे कहीं ज्यादा है।”

वीरेंद्रसिंह ने कहा – “तो इस वक्त कहाँ से लाएँ?”

तेजसिंह ने जवाब दिया – “तमस्सुक लिख दो।”

कुमार हँस पड़े और उँगली से हीरे की अँगूठी उतारकर दे दी।

तेजसिंह ने खुश होकर ले ली और कहा – “परमेश्वर आपकी मुराद पूरी करे। अब हम लोगों को भी यहाँ से अपने घर चले चलना चाहिए क्योंकि अब मैं चुनारगढ़ जाऊँगा, देखूँ शैतान का बच्चा वहाँ क्या बंदोबस्त कर रहा है।”

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देवकी नन्दन खत्री
बाबू देवकीनन्दन खत्री (29 जून 1861 - 1 अगस्त 1913) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोदना, कटोरा भर, भूतनाथ जैसी रचनाएं की।

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