ग़ज़लें : आलोक मिश्रा
1
तवज्जोह तो अब ख़ैर क्या पाएँगे
मगर दिल की ख़ातिर चले जाएँगे
भटकते रहेंगे तुम्हारे ही गिर्द
निगाहों में लेकिन नहीं आएँगे
कहाँ हैं अलग ख़ुद भी दुनिया से कुछ
नए चेहरों में हम भी खो जाएँगे
इक ऐसी ही ‘चुप’ के तो ज़ख़्मी हैं सो
पुकारे बग़ैर अब नहीं आएँगे
ये दुःख जिन से फिरते हो तुम नीम-जाँ
किसी गिनती में भी नहीं आएँगे
2
उस तरफ़ भी वही सियाह ग़ुबार
हम ने देखा है जा के नींद के पार
कितना कुछ बोलना पड़ा तुमको
एक छोटा-सा लफ़्ज़ था इंकार
ख़ुश्क आँखों की चुप डराने लगी
दिल मदद कर मिरी, किसी को पुकार
तुझको ऐ शख़्स कुछ ख़बर भी है
किस ख़राबे में है तिरा बीमार
फिर ये दुःख भी तो आसमानी है
क्या ख़फ़ा होना इस ज़मीन से यार!
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